Book Title: Hindi Gadya Nirman
Author(s): Lakshmidhar Vajpai
Publisher: Hindi Sahitya Sammelan Prayag

View full book text
Previous | Next

Page 218
________________ २१८ [हिन्दी-गद्य-निर्माण से श्राप कह उठे-."धन्य देवि ! तुम्हारे विराजने के लिये वस्तुतः हमारे हृदय मे बहुत ही ऊँचा सिहांसन है । अच्छा अब हम मरकर अमर होने जाते है । देखना, प्यारी ! कहीं ऐसा न हो कि-" (कंठ गद्गद् हो गया ।) : ' - रानी ने फिर उन्हें आलिङ्गित करके कहा-"प्राण प्यारे ! इतना अवश्य याद रखिये कि, छोटा बच्चा चाहे आसमान छू ले, सीपी में सम्भवतः समुद्र समा जाय, हिमालय हिल जाए तो हिल जाय, पर भारत की सती देवियां अपने प्रण से तनिक भी नहीं डिग सकतीं।" चूड़ावत जी प्रेम-भरी नजरों से एकटक रानी की ओर देखते देखते सीढ़ी से उतर पड़े । रानी सतृष्ण नेत्रों से ताकती रह गयी। चूड़ावतजी घोड़े पर सवार हो रहे हैं । डके की आवाज धनी होती जा रही है घोड़े भड़ककर अड़ रहे हैं । चूड़ावत जी का प्रशस्त ललाट अभी तक चिन्ता की रेखायों से कुचित हैं। रतनारे लोचन-ललाम रण-रस में पगे हैं। उधर रानी विचार कर रही हैं-"मेरे प्राणेश्वर का मन मुझसे ही यदि लगा रहेगा तो विजय लक्ष्मी किसी प्रकार उनके गले मे जयमाल नहीं डालेगी। उन्हें मेरे सतीत्व पर संकट श्राने का भय है। कुछ अंशों में यह , स्वाभाविक भी है।" इसी विचार-तरङ्ग में रानी दूवती उतराती हैं । तब तक चूड़ावत जी का अन्तिम संवाद लेकर आया हुअा एक प्रिय सेवक विनम्र भाव से कह उठता है-"चूड़ावतजी चिन्ह चाहते हैं-दृढ़ श्राशा और अटल विश्वास का सन्तोष होने योग्य कोई अपनी प्यारी वस्तु दीजिए । उन्होंने कहा है। कि "तुम्हारी ही अात्मा हमारे शरीर मे बैठकर इसे रणभूमि की अोर - लिये। जा रही है हम अपनी आत्मा तुम्हारे शरीर में छोड़ कर जा रहे हैं ।". ___ स्नेह सूचक सवाद सुन कर रानी अपने मन मे विचार रही है"प्राणेश्वर का व्यान जव तक इस तुच्छ शरीर की अोर लगा रहेगा तब तक निश्चय ही कृतकार्य नहीं होंगे 12 इतना सोच कर बोली, "अच्छा खडा रह, मेरा सिर लिये जा।"

Loading...

Page Navigation
1 ... 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237