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हिन्दी-गद्य-निर्माच जो सत्य और शिव है वही सुन्दर भी है और संसार में उसी का शान हमको प्राप्त करना है।
यह दिव्य आदर्श ग्राज कहाँ दिखाई देता है ? आज प्रत्येक कलाकार कोई विशेष उद्देश्य रखकर अपनी कला का उपयोग करता है और उसमें सौंदर्य प्रदर्शित करता है, पर सच्चे कलाकार का यह धर्म नहीं है । त्वामाविक कलाकार अपने हृदय में जिस सौन्दर्य का अनुभव करता है, वह स्वय स्फूर्ति से उसके द्वारा प्रदर्शित होता है । स्थापत्य, भास्कर्य, चित्रलेखन, .. संगीत और कविता किसी भी ललित कला को ले लीजिए, उसके सौंदर्य का आविर्भाव यदि स्वाभाविक रूप से कलाकार के हृदय में होता है; और यदि : वह स्वाभाविक रूप से ही उस सौंदर्य को उच्छवास में, प्रकट करता है- . फिर चाहे वह वाणी से प्रकट करे अथवा कुचिका से प्रकट करे अथवा अन्य किसी शिल्पसाधन से प्रकट करे-जो वही 'सत्य' और 'शिव' है । वह '' अवश्य ही शाश्वत, सुन्दर और कल्याण-कारक होगा । सृष्टि मे जो कुछ . भी भीतर और वाहर मधुर है, सुन्दर है और हृदय में सुखदायक अनुभूति का संचार करता है, वही सब ललित कलाओं का विषय है, परन्तु साहित्य (काव्यकला) और संगीत, ये ही दो. कलाएँ ऐसी हैं, जो मानव हृदय के सौंदर्य को सफलतापूर्वक प्रदर्शित कर सकती हैं। हमारे हिन्दी साहित्य में सूरदास और तुलसीदास इन कलाओं के आदर्श-स्वरूप हैं-दोनों में साहित्य और सगीत का पूर्ण विकास दिखाई देता है।
उक्त दोनों कवियों ने अपनी निज की अनुभति से काव्य और संगीतमय जी उद्गार स्वयंस्फूर्ति से निकाले हैं, उनमें सृष्टि-सौंदर्य के साथ ही साथ मानव-जगत् के अन्तः सौंदर्य का भी पूर्ण विकास दिखाई देता है । उनके .. शब्द उनके निजानन्द के हार्दिक उच्छवास हैं । वात यह है कि जब कवि " का हृदय सौंदर्य और प्रेम से लवालब भर जाता है, तव उसके हृदय से सुन्दर उद्गार आप ही आप हठात् वाहर निकलने लगते हैं । भीतर-बाहर । - सम्पूर्ण सृष्टि उसको सौंदर्यमय दिखाई देने लगती है: और सृष्टि-निर्माण के कौशल पर कौतूहल और अानन्द में आकर अापही श्राप वह गाने लगता है।