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[हिन्दी-गद्य-निर्माण अाजकल जो लोग रहस्यमयी या छायामूलक कविता लिखते हैं। उनकी कविता से तो उन लोगों की पद्य-रचना अच्छी होती है जो देश प्रेम पर अपनी लेखनी चलाते या "चलो वीर पटुवाखाली की तरह की पंक्तियों की सृष्टि करते हैं । उनमे कविता के गुण भले ही न हों, पर उनका मतलब . तो समझ मे आ जाता है । पर छायावादियों की रचना तो कभी समझ में भी नहीं पाती। ये लोग वहुधा बड़े ही विलक्षण छन्दों या वृत्तों का भी प्रयोग करते हैं । कोई चौपदे लिखते हैं-कोई छःपदे, कोई ग्यारह पदे ! कोई तेरह पदे ! किसी की चार सतरें गज़-गन भर लम्बी तो दो सतरें दो ही दो अंगुल की! फिर ये लोग बेतुकी पद्यावली भो लिखने की बहुधा कृपा करते हैं । इस दशा में इनकी रचना एक अजीव गोरखधन्धा हो जाती है। न ये शास्त्र की आज्ञा के कायल, न ये पूर्ववर्ती कवियों की प्रणाली के अनुवर्ती; न ये सत्समालोचकों के परामर्श की परवा करने वाले । इनका. मूल मन्त्र है- हमचुनां दीगरे नेस्त । इस हमादानी को दूर करने का क्या इलाज हो सकता है, कुछ समझ में नहीं आता।..
स्यपचर कल्पना कीजिये कि कवि-चक्रचूड़ामणि चन्द्रचूड़ चतुर्वेदी छायात्मक कविता के उपासक हैं । आप को विश्व विधाता के रचना-चातुर्य का वर्णन करना है । यह काम वे प्रत्यक्ष राति पर करना चाहते नहीं। इसलिए उन्होंने किसी माली या कुम्भकार का आश्रय लिया और लगे उसके कार्य-कलाप के खूबियों का चित्र उतारने । अव उस माली या कुम्हार की कारीगरी क वर्णन सुनकर प्रतिपद, प्रतिवाक्य, प्रतिपद्य में ब्रह्मदेव की कारीगरी का या भान न हुआ तो कवीश्वर जी अपनी कृति में कृत-कार्य कैसे समझे उ सकेंगे। इस तरह का परोक्ष वर्णन- क्या' अल्पायास-साध्य होता है ? क्य यह काम किसी ऐसे-वैसे कवि के बूते का है ? रवीन्द्रनाथ ने जो काम क दिखाया है वह क्या सभी ऐरे-गैरे कर दिखा सकते हैं ? जब ये लोग अप लेख का भाव कभी-कभी त्वयं ही नहीं समझा सकते तब दूसरे उ कैसे समझ सकेंगे ? अफसोस तो इस बात का है कि ये इतनी मोटी-मो
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दही उलझन है।