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अाजकल के छायावादी कवि और कविता]
१२६ है। बस सांसारिक घटनाओं का इतना सजीव चित्र खड़ा कर देता है कि देखनेवाले चेष्टा करने पर भी उसके ऊपर से आँख नहीं उठा सकते । जब वह श्रोताओं को किसी विशेष विकार में मग्न करना अथवा किसी विशेष दशा में लाना चाहता है तब वह कुछ ऐसे भावों का उन्मेष करता है कि श्रोता मुग्ध हो जाते हैं और विवश-से होकर कवि के प्रयत्न को विना विलम्ब 'सफल करने लगते हैं । यदि वह उनसे कुछ कराना चाहता है तो करा कर ही छोड़ता है। सत्कवि के लिए ये बातें सर्वथा सम्भव हैं।
यदि किसी कवि की कविता मे. केवल शुष्क विचारों का विजृम्भण है, यदि उसकी भाषा निरी नीरस है, यदि उसमें कुछ भी चमत्कार नहीं तो अपर जिन घटनाओं की कल्पना की गई, उनका होना कदापि सम्भव नहीं। और यदि उसकी क्रिष्ट कल्पनाओं और शुष्क शन्दाडम्बर के भीतर छिपे हुए उसके मनोभाव श्रोताओं की समझ ही में न आये तो कोढ़ में खाज ही उत्पन्न हो गई समझिए । ऐसी कविता से प्रभावान्वित होना तो दूर उसे पढ़ने तक का भी कष्ट शायद ही कोई उठाने का साहस कर सके । वात यदि समझ ही में न आई तो पढ़ने या सुननेवाले पर असर पड़ कैसे सकता है ? जो कवि शन्द-चयन, वाक्य-विन्यास और वाक्य-समुन्दाय के आकारप्रकार की काट-छाँट में भी कौशल नहीं दिखा सकते उनकी रचना विस्मृति
के अन्धकार मे अवश्य ही विलीन हो जाती है। जिसमें रचना-चातुर्या तक । नहीं उसकी कवियशोलिप्सा बिडम्बना-मात्र है । किसी ने लिखा है
तान्यर्थरतानि न सन्ति येषा सुवर्णशधेन च ये न पूर्णाः। .. ते रीतिमात्रेण दरिद्रकल्पा यान्तीश्वरत्व हि कथं कवीनाम् ? ।
जिनके पास न तो अर्थरूपी रत्न ही है और न सुवर्ण-रूपी सुवर्ण-समूह ' ही है वे कवियों की रीति-मात्र का आश्रय लेकर-कॉ से और पीतल के दोचार टुकड़े रखनेवाले किसी दरिद्रकल्प मनुष्य के सदृश-भला कहीं कवीश्वरत्व पाने के अधिकारी हो सकते हैं ?