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(हिन्दी-गव-निर्मात वाले अर्य तक पहुँच जायंगे कि "तुमने इस लड़की को बुरे घर में बह करके अत्यन्त कष्ट में डाल दिया । इसी प्रकार गरमी से व्याकुल लोगों में । से कोई बोल उठे कि 'एक पत्ती भा नहीं हिल रही है। तो शेष लोगों को शायद पहले यह कथन नितान्त अप्रासंगिक जान पड़े पर पीछे वे व्यंजना के सहारे कहने वाले के इस ससंगत अर्थ तक पहुँच जायँगे कि 'हवा बिलकुल .. नहीं चल रही है। इससे यह स्पष्ट है कि लक्ष्यार्थ और व्यंग्याथ भी योग्यता या 'उपयुक्तता को पहुंचा हुआ, समझ में आने योग्य रूप म प्राया हुआ, अर्थ ही होता है । अयोग्य और अनुपपन्न वाच्यार्थ ही लक्षण या व्यंजना द्वारा योग्य और बुद्धिग्राह्य रूप में परिणत होकर हमारे सामने आता है।
व्यंजना के सम्बन्ध में कुछ विचार करने की आवश्यकता है। व्यंबना दो प्रकार की मानी गई है-वस्तु-व्यंजना और भावव्यंजना । किसी तथ्य या वृत्त की व्यंजना वस्तुव्यंजना कहलाती है और किसी भाव की व्यंजना भावव्यंशजना । (जब किसी रस के सब अवयवों के सहित होती है तब रस-व्यंजना कहलाती है।) यदि थोड़ा ध्यान देकर विचार किया जाय तो दोनों मिन प्रकार की वृत्तियाँ ठहरती हैं। वस्तुव्यंजना- किसी तथ्य या वृत्त को बोध कराती है, पर भावव्यंजना जिस रूप में मानी गई है उसे रूप में किसी भाव का संचार करती है, उसकी अनुमति उत्पन्न करती है । बोध या शान कराना 'एक वार्तहे और कोई भाव'जगाना दुसरी बात । दोनों भिन्नकोटि की क्रियाये हैं। पर साहित्य के अन्यों दोनों में केवल इतना ही मेद स्वीकार किया गया है कि एक में वाच्यार्थ से व्यंग्यार्थ पर आने का पूर्वापर क्रम श्रोता या पाठक को लक्षित नहीं होता । पर बात इतनी ही नहीं नान पड़ती । रति, क्रोध आदि भावों का अनुभव करना एक अर्थ से दूसरे अर्थ पर जाना नहीं है । अतः किसी भाव की अनुभूति को व्यंग्याथ कहना बहुत उपयुक्त नहीं जान पड़ता । यदि व्यंग्य कोई अर्थ होगा तो वस्तु या तथ्य ही होगा और इस रूप में होगा कि 'अमुक प्रेम कर रहा है', 'अमुक क्रोध कर रहा है। पर केवल इस बात का शान करना कि "अमुक क्रोध या प्रेम कर रहा है। स्वयं क्रोध या रति भाव का -रसात्मक अनुभव करना नहीं है । रस-व्यंबनाइस रूप में मानी भी नहीं गई है।