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[हिन्दीगद्य-निर्माब
प्रवीण मन ही मन अपने ऊपर अझला रहे थे । निमंत्रण पाकर उन्होंने अपने को धन्य माना था; पर यहाँ आकर उनका जितना अपमान हो रहा या, उसके देखते तो वह संतोष की कुटिया, स्वर्ग थी। उन्होंने अपने मन को धिक्कारा-तुम जैसे सम्मान के लोमियों का यही दण्ड है। अब तो आँखें खुलीं, तुम कितने सम्मान के पात्र हो! तुम इस स्वार्थमय संसार में किसी के काम नहीं पा सकते ! वकील-वैरिस्टर तुम्हारा सम्मान क्यों करे, तुम उनके मुवक्किल नहीं हो सकते, न उन्हें तुम्हारे द्वारा कोई मुकदमा पाने की आशा है । डाक्टर या हकीम तुम्हारा सम्मान क्यों करें, उन्हें तुम्हारे घर विना फीस आने की इच्छा नहीं। तुम लिखने के लिए बने हो, लिखे जाश्रो, वस ! और संसार में तुम्हारा कोई प्रयोजन नहीं।
सहसा लोगों में हलचल पड़ गई ! आज के प्रधान अतिथि का श्रागमन हुआ। यह महाशय हाईकोर्ट के जन नियुक्त हुए थे। इसी उपलक्ष्य में यह जलसा हो रहा था। राजा साहब ने लपक कर उनसे हाथ मिलाया और आकर प्रवीणजी से बोले-बार अपनी कविता तो लिख ही लाये होंगे।
प्रवीण ने कहा-मैंने कोई कविता नहीं लिखी।
'सच ! तब तो श्रापने गजब ही कर दिया। अरे भले आदमी, अब तो कोई चीज लिख डालो। दो ही चार पंक्तियों हो जाँय | बस ! ऐसे अवसर पर एक कविता का पढ़ा जाना लाजिमी है।"
'मैं इतनी जल्द कोई चीज नहीं लिख सकता। 'मैंने व्यर्थ ही इतने श्रादमियों से आपका परिचय कराया ? 'विल्कुल व्यर्थ ।
'अरे भाई-जान, किसी प्राचीन कवि की ही कोई चीज सुना दीजिये। यहाँ कौन जानता है।
'जी नहीं चमा कीजिये । मैं भाट नहीं, न कथक हूँ।" ___ यह कहते हुए प्रवीणजी तुरन्त वहाँ से चल दिये। घर पहुंचे, तो उनका चेहरा खिसा हुआ था।
सुमित्रा ने प्रसन्न होकर पूछा-इतना जल्दी कैसे आ गये।