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[हिन्दी-गद्य-निर्माण
इसी प्रकार शरशय्या पर पड़े भीष्म जी इस बात की प्रतीक्षा में । है कि सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण हो जायँ तब हम अपना शरीर छोड़े। इसी शय्या पर से वे दुर्योधन और कर्ण को उपदेश दे रहे हैं कि इस देश नाशकारी संग्राम को मेरी ही मृत्यु के साथ बन्द कर देना चाहिये।
दुर्योधन और कर्ण के न मानने के कारण युद्ध बरावर हो रहा है। अन्त मे कौरवों को जय कर युधिष्ठिर ने राज पाया है; परन्तु भाइयों के मरने पर शोकग्रस्त हो फिर पितामह के पास आये हैं और भीष्म जी ने उनको वह धर्म का उपदेश दिया है जो चिरकाल तक भारतवासियों को स्मरण रखना चाहिये :
___ 'केवल मारने और न मारने में पाप व पुण्य नहीं है। धर्म की और देश की रक्षा के लिये शत्रुओं का नाश करना ही सदा धर्म है। ऐसे समय मारने से मुख मोड़ना महापाप है। धर्म ही एक मुख्य पदार्थ है । जीना और मरना सदा ही लगा रहता है, एक शरीर को छोड मनुष्य को दूसरे शरीर में जाना है। इस कारण शरीर के मोह में पड़ धर्म का त्याग करना केवल निर्बुदि' और मूर्खता है।
महात्मा भीष्म का चरित्र इस बात का उदाहरण है कि मनुष्य को किस प्रकार अपने धर्म को निवाहना चाहिये और भारतवासियों को सदा शिक्षा दे रहा है कि कायरता और शरीर के मोह को छोड़ तुम्हें निर्भयता से अपने धर्म पर आरूढ़ हो देश की उन्नति में प्रवृत्त हो जाना चाहिये।
साहित्योपासक
[बेखक-श्रीयुत प्रेमचन्द्र जी] प्रातःकाल महाशय प्रवीण ने बीस दफा उबालती हुई चाय का प्याला तैयार किया और बिना शस्कर और दूध के पी गये। यही उनका नाश्ता या। महीनों से मीठी, दूधिया चाय न मिली थी। दूध और शक्कर उनके