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[हिन्दी-नाव-निर्माद
प्रवीण ने पान खाते हुए कहा-'इस वक्त तो मुग्राफ रखिए । वहां देर होगी। फिर कभी हाजिर हूँगा।
वहाँ से उठ कर वह एक कपड़े वाले की दुकान के सामने सके। मनोहरदास नाम था। इन्हें खड़े देखकर आँखें उठाई। वेचारा इनके नाम को रो बैठा या। समझ लिया शायद शहर में है नहीं। समझा रुपये . देने आए हैं । बोला - " भाई प्रवीणजी! आपने तो बहुत दिन दर्शन ही नहीं दिये। रक्का कई बार भेजा, मगर प्यादे को आपके घर का पता ही न मिला । मुनीमनी जरा देखो तो आपके नाम क्या है । 'प्रवीण जो के प्रार तकाजों से सूख बाडे ये; पर आज वह इस तरह खड़े थे, मानों उन्होंने कोई कवच धारण कर लिया लिया है, जिस पर किसी अस्त्र का आपात नहीं हो सकता । वोले-'जरा इन राजा साहब के यहाँ से लौट आऊँ, तो निश्चित बैहूँ । इस समय जल्दी में हूँ !
राजा साहब पर मनोहरदास के कई हजार रुपये प्राते थे। फिर मी उनका दामन न छोड़ता था। एक के तीन वसूल करता । उसने प्रवास जी -को उसी श्रेणी में रखा, जितका पेशा रईसों को लूटना है। बोला-'पान तो -खाते बाइये महाशय राजा साहब एक दिन के हैं, हम तो वारहो मास के
है। भाई साहब ! कुछ कपड़े दरकार हो तो ले जाइए । अब तो होली श्रा -रही है । मौका हो तो जरा राजा साहव के खजान्ची से कहियेगा, पुराना 'हिमाव बहुत दिन से पड़ा हुआ है, अब तो सफाई हो जाय । अब हम ऐसा कौन-सा नफा ले लेते हैं, कि दो-दो साल हिसाव ही न हो।'
प्रवीण ने कहा-'इस समय तो पान-बान रहने दो भाई। देर हो जायगी। जब उन्हें मुझसे मिलने का इतना शौक है और मेरा इतना सम्मान करते हैं, तो अपना भी धर्म है कि उनको मेरे कारण कष्ट न हो। हम तो गुणा-ग्राहक चाहते है, दौलत के मुखे नहीं। कोई अपना सम्मान करे तो उनको गुलामी करें। अगर किसी को रियासत का घमण्ड हो, तो हमें उसकी परवाह नहीं।"