Book Title: Hindi Gadya Nirman
Author(s): Lakshmidhar Vajpai
Publisher: Hindi Sahitya Sammelan Prayag

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Page 191
________________ साहित्योपासक ] . . १६१ की दूकान पर जाकर खड़े हो गए। हाफिज जी विसाते का कारोवार करते ये। बहुत दिन हुये प्रवीण इस दूकान से एक छतरी ले गए थे और अभी तक दाम न चुका सके थे। प्रवीण को देखकर बोले '-महाशयजी, अभी तक छतरी के दाम नहीं मिले । सौ-पचास गाहक मिल जाय तो दिवाला हो जाय ! अब तो बहुत दिन हुए । ___ . प्रवीण की बाँछे खिल गई । दिली मुराद पूरी हुई। वोले, मैं भूला नहीं हूँ हाफिज जी, इन दिनों काम इतना ज्यादा था कि घर से निकलना मुश्किल था। रुपये तो हाथ आते पर आपकी दुश्रा से कदरशिनासों की कमी नहीं । दो-चार अादमी घेरे ही रहते है। इस वक्त भी राजा साहव-अजी वही जो नुक्कड़वाले वॅगले में रहते हैं. उन्हीं के यहाँ जा रहा हूँ। दावत है । रोज ऐसा कोई न कोई मौका आता ही रहता है।' . हाफिज समद प्रभावित होकर बोला-'अच्छा! आप राजा साहब के यहाँ तशरीफ ले जा रहे हैं। ठीक है, आप जैसे वा-कमालों की कदर रईस ही कर सकते हैं, और कौन करेगा, सुभानल्लाह ! आप इस जमाने में यकता है । और कोई मौका हाथ आ जाय, तो गरीबों को न भूल जाइयेगा । राजा साहब की अगर इधर निगाह हो जाय तो फिर क्या पूछना । एक पूरा विसाता तो उन्हीं के लिये चाहिये । ढाई-तीन लाख सालाना आमदनी है।" " प्रवीण को ढाई-तीन लाख कुछ तुच्छ जान पड़े। जबानी जमाखर्च है, तो दस-बीस लाख कहने में क्या हानि । बोले - 'ढाई-तीन लाख ! श्राप तो उन्हें गालियाँ देते हैं। उनकी आमदनी दस लाख से कम नहीं । एक साहब का अन्दाजा तो बीस लाख का है । इलाका है, मकानात हैं, दूकानें है, ठेका है, अमानती रुपये हैं, और फिर सबसे बड़ी सरकार बहादुर की निगाह है।' हाफिज ने बड़ी नम्रता से कहा-'यह दूकान आपही की है जनाब, बस इतनी ही अरज है । अरे मुरादी, जरा दो-पैसे के अच्छे-से पान तो बनवा ला, आपके लिये । पाइये, दो मिनट बैठिये। कोई चीज पसन्द हो तो दिखाऊँ। श्राप से तो घर का वास्ता है।'

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