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साहित्योपासक ] . पास केवल एक श्राना और रह गया है जिनसे उधार मिल सकता था उनसे ले चुकी और जिससे लिया उसे देने की नौवत नहीं आई। मुझे तो
अब और कोई उपाय नहीं सूझता ।' 1. प्रवीण ने एक क्षण के वाद कहा-दो-एक पत्रिकाओं से मेरे लेखों
के रुपये आने वाले हैं। शायद कल तक श्रा जाये । और अगर कल उपवास ही करना पड़े, तो क्या चिंता । हमारा धर्म है काम करना । हम काम करते हैं । और तन-मन से काम करते हैं अगर इस पर भी हमें फाका करना पड़े, तो मेरा दोष नहीं। मर हो तो जाऊँगा । हमारे जैसे लाखों श्रादमी रोज मरते हैं। संसार का काम ज्यों का त्यों चलता रहता है । फिर इसका क्या गम कि हम भूखों मर जायेंगे | पर मौत डरने की वस्तु नहीं। मैं तो कबीर-पंथियों का कायल हूँ जो अर्थी को गाते-बजाते ले जाते हैं । मैं . 'इससे नहीं डरता । तुम्हीं कहा, मैं जो कुछ कहता हूँ, इससे अधिक और
कुछ मेरी शक्ति के बाहर है या नहीं। सारी दुनिया मीठी नींद सोती होती , है और मैं कलम लिये बैठा होता हूँ। लोग हंसी-दिल्लगी, श्रामोद-प्रमोद,
करते रहते हैं; मेरे लिए वह सब हराम है। यहाँ तक कि महीनों से हँसने तक की नौबत नहीं आई। होली के दिन भी मैंने तातील नहीं मनाई । बीमार भी होता हूँ, तो लिखने की फिक्र सिर पर सवार रहती है । सोचो तुम बीमार थी, और मैं वैद्य के यहाँ जाने के लिये समय न पाता था । अगर दुनिया नहीं कदर करती न करे, इसमें दुनिया का ही नुकसान है। मेरी कोई हानि नहीं। दीपक का काम है जलना। उसका प्रकाश फैलता है, या उसके सामने कोई भोट है, उसे इससे प्रयोजन नहीं । मेरा भी ऐसा कौन मित्र परिचित या संबन्धी है जिसका मैं आभारी नहीं । यहाँ तक कि अब घर से निकलते शर्म आती है । संतोष इतना ही है, कि लोग मुझे बदनीयत नहीं समझते । वे मेरी कुछ अधिक मदद न कर सकें। पर उन्हें मुझसे सहानुभूति अवश्य है मेरी खुशी के लिए इतना ही काफी है, कि आज वह अवसर तो पाया कि एक रईस ने मेरा सम्मान किया।'
फिर सहसा उन पर एक नशा-सा छा गया। गर्व से बोले-'नहीं