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[हिन्दी-गद्य-निर्माद वस्तुज्ञापन-कार्य एक प्रकार से कुछ नहीं होता । ऐसे अर्थों का मूल्य इस दृष्टि से नहीं प्रॉका जाता है कि वे कहाँ तक वास्तविक,सम्भव या अन्याहत है। बल्कि इस दृष्टि से ऑका जाता है कि वे किसी भावना को कितने तीन और , बढ़े चढ़े रूप में व्यंजित करते हैं अथवा उक्ति में कितना वैचित्र्य या. चमत्कार लाकर अनुरञ्जन करते हैं । ऐसे अर्थ विधान की सम्भावना काव्य में सबसे अधिक होती है। पर यह न समझना चाहिये कि काव्य-अर्थ सहा इसी संक्रमित, अधीन दशा में ही पाया जाता है। बहुत-सी अत्यन्त मार्मिक और भावपूर्ण कविताये ऐसी होती हैं जिनमें भाषा कोई वेशभूषा या रंगरूप नहीं बनाती; अर्थ अपने खुले रूप में ही पूरा रसात्मक प्रभाव डालते हैं। । काव्य की अपेक्षा रूपक या नाटक मे भावव्यंजना या चमत्कार के लिये स्थान परिमित होता है । उसमें भाषा अपनी अर्थक्रिया अधिकतर सीधे ढङ्ग से करती है, केवल वीच बीच मे भाव या चमत्कार उसे दवाकर अपना काम लेते हैं। बात यह है कि नाटक कथोपकथन के सहारे पर चलते हैं । पात्रों की वातचीत यदि वरावर वक्रता लिये अतिरंजित या हवाई होगी तो वह अस्वाभाविक हो जायगी और सारा नाटकत्व निकल जायगा । यह ठीक है कि पश्चिम मे कुछ कवियों ने (नाटककारों ने नहीं) केवल कल्पना की उड़ान दिखाने वाले नाटक लिखे हैं, पर वे शुद्ध नाटक की काटि में नहीं लिये जाते । यही बात मन की भावना या विकारों को मूर्त रूप मे-पात्रों के रूप में खड़े करने वाले नाटकों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है।
. आख्यायिका उपन्यास के कथा-प्रवाह और कथोपकथन में अर्थ अपने प्रकृत रूप में और भी अधिक विद्यमान रहता है और उसे दबाने वाले भाव-विधान या उक्ति-वैचित्र्य के लिये और थोड़ा स्थान बचता है। उपन्यास में मन बहुत कुछ घटना-चक्र में लगा रहता है। पाठक का मर्मस्पश बहुत कुछ घटनाएँ ही करती है। पात्रों द्वारा भावों की लम्बी चौड़ी व्यंजना की अपेक्षा उतनी नहीं रहती। काव्यत्मक गद्य-प्रबन्ध या लेख छन्द के बन्धन से मुक्त काव्य ही हैं । अत: रचनामे से उनमें भी अर्थ का उन्हीं रूपों में