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रामलीला ] -
१३७ रम (पीते ही नस नस में रम जानेवाली), यही नहीं मरने पर भी 'राम नाम सत्य है, उसके पीछे भी गया ज़ी में राम शिला पर श्राद्ध ! इस सर्व व्यापकता , का क्या कारण १ यही कि हम अपने देश को ब्रह्ममय समझते थे। कोई
बात, कोई काम ऐसा न करते थे जिसमें सर्वव्यापी सव स्थान में रमण' करने • वाले को भूल जाय । अथच राम-भक्त भी इतने थे कि श्रीमान् कौशल्यानन्द ,
वर्धन, जानकी-जीवन, अखिलार्य-नरेन्द्र-निषेवित-पद-पद्म, महाराजधिराज
मायामानुष भगवान रामचन्द्र जी को साक्षात् परब्रह्म मानते थे। इस बात का - वर्णन तो फिर कभी करेगे कि जो हमारे दशरथ राजकुमार को परब्रह्म नहीं - मानते वे निश्चय धोखा खाते हैं, अवश्य प्रेम राज में बैठने लायक नहीं हैं ! पर यहाँ पर इतना कहे बिना हमारी आत्मा नहीं मानती कि हमारे प्राय्य वश । को राम इतने प्यारे हैं कि परम प्रम का श्राधार राम ही को कह सकते हैं, यहाँ तक कि सहृदय समाज को 'राम पाद नख ज्योत्स्ना परब्रह्मति गीयते' कहते हुए भी किंचित् संकोच नहीं होता! इसका कारण यही है कि राम के रूप, गुण, स्वभाव में कोई वात ऐसी नहीं है कि जिसके द्वारा सहृदयों के हृदय में प्रेम, भक्ति, सहृदयता, अनुराग का महासागर न उमड़ उठता हो ! अाज हमारे यहाँ की सुख-सामग्री सव नष्टप्राय हो रही है, सहस्रों वर्ष से हम दिनदिन दीन होते चले आते हैं पर तो भी राम से हमारा संबंध बना है । उनके पूर्व-पुरुषों की राजधानी अयोध्या को देख के हमें रोना श्राता है। जो, एक दिन भारत के नगरों का शिरोमणि था, हाय ! आज वह फैजाबाद के जिले
में एक गाँव मात्र रह गया है। जहाँ एक से एक धीर धार्मिक महाराज राज्य __ करते थे वहाँ अाज बैरागी तथा थोड़े से दीन-दर्शा-दलित हिन्दू रह गए हैं ।
' जो लोग प्रतिमा-पूजन के द्वेषी हैं, परमेश्वर न करे, यदि कहीं उनकी चले तो फिर अयोध्या में रही क्या जायगा ? योड़े मे मन्दिर ही तो हमारी , प्यारी अयोध्या के सूखे हाड़ हैं ! पर हाँ- रामचन्द्र की विश्वव्यापिनी कीर्ति जिस समय हमारे कानों मे पड़ती है उसी समय हमारा मरा हुआ मन जाग उठता है ! हमारे इतिहास का हमारे दुर्दैवाने नाश कर दिया । यदि हम बड़ा भारी परिश्रम करके अपने पूर्वजनों का सुयश एकत्र किया चाहें तो बड़ी मुद्दन