________________
* १६४
[हिन्दी-गद्य-निर्माण . ये जातिगत तथा देशगत विशेषताएँ तो हमारे साहित्य के मावफ्छ । की है। इनके अतिरिक्त उसके कलापक्ष मे भी कुछ स्थायी बातीय मनोवृत्तियों - का प्रतिविम्ब अवश्य दिखाई देता है । कलापक्ष से हमारा अभिप्राय केवल : शन्द संघटन अथवा छन्द रचना तथा विविध आलंकारिक प्रयोगों से ही नहीं । है, प्रत्युत उसमें भावों को व्यक्त करने की शैली भी सम्मिलित है । यद्यपि । प्रत्येक कविता के मूल में कवि का व्यक्तित्व अन्तनिहित रहता है और भावश्यकता पड़ने पर उस कविता के विश्लेषण द्वारा हम कवि के आदर्शों तथा । उसके व्यक्तित्व से परिचित हो सकते हैं, परन्तु साधारणतः हम यह देखते हैं कि कुछ कविणे में प्रथम पुरुष एक वचन के प्रयोग की प्रवृत्ति अधिक होती है तथा कुछ कवि अन्य पुरुष में अपने भाव प्रकट करते हैं। . .
अगरेजी में इसी विभिन्नता के आधार पर कविता के व्यक्तिगत तथा अन्यक्तिगत नाम मेद हुए हैं परन्तु ये विभेद वास्तव में कविता के नहीं है, उसकी शैली के हैं। दोनों प्रकार की कविताओं में कविके आदर्शों का अभिव्यंजन होता है, केवल इस अभिव्यंजन के ढग में अन्तर रहता है। एक में वे आदर्श, अात्मकथन अथवा श्रात्मनिवेदन के रूप में व्यक्त किये जाते है। तथा दूसरे में उन्हें व्यंजित करने के लिए वर्णनात्मक प्रणाली का आधार ग्रहण किया जाता है। भारतीय कवियों में दूसरी ( वर्णनात्मक ) शैली की । अधिकता तथा पहली की न्यूनता पाई जाती है। यही कारण है कि यहाँ, वर्णनात्मक काव्य अधिक है तथा कुछ भक्त कवियों की रचनाओं के अतिरिक्त उस प्रकार की कविता का अभाव है जिसे गीति-काव्य कहते हैं और जो विशेषकर पदों के रूप में लिखी जाती है।
साहित्य के कलापक्ष की अन्य महत्वपूर्ण जातीय विशेषताओं से परिचित होने के लिए हमें उसके शन्द-समुदाय पर ध्यान देना पड़ेगा. साथ हो , भारतीय संगीतशान की कुछ साधारण वातें भी जान लेनी होगी । वास्यरचना के विविध मेदों, शन्दगत तथा अर्थगत अलंकारों और अक्षर मात्रिक अथवा लघु गुरु मात्रिक आदि छन्द समुदायों का विवेचन भी उपयोगी हो सकता है। परन्तु एक तो ये विषय इतने विस्तृत है कि इन पर यहां विचार