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मजदूरी और प्रम] जाऊँ तो अच्छा है। मेरी पुस्तकें खो जावे तो उत्तम है। ऐसा होने मे कदाचित् इस वनवासी परिवार की तरह मेरे दिल के नेत्र खुल जाये और मैं ईश्वरीय झलक देख सकूँ ।। चन्द्र और सूर्य की विस्तृत ज्योति में जो वेदगान हो रहा है उसे इस गड़रिया की कन्याओं की तरह मैं सुन तो न सक्, परन्तु कदाचित् प्रत्यक्ष देख सकूँ । कहते हैं, भूषियों ने भी इनको देखा ही था, सुना न था । पण्डितों की ऊटपटाग बातों से मेरा जी उकता गया है। प्रकृति की मंद मद हसी में ये अनपढ़ लोग ईश्वर के हंसते हुए अोठ देखरहे हैं । पशुओं के अशान में गम्भीर 'शान छिपा हुश्रा है। इन लोगों के जीवन में अद्भुत प्रात्मानुभव भरा हुआ है। गड़रिए के परिवार की प्रम मजदूरी का मूल्य कौन दे सकता है ?
. मजदूर की मजदूरी आपने चार आने पैसे मजदूरी के हाथ में रखकर कहा-'यह लो दिन भर की अपनी मजदूरी वाह क्या दिल्लगी है ! हाथ, पाव, सिर ऑखें इत्यादि सब अवयव, उसने आपको अर्पण कर दिए । ये सब चीजें उसकी तो थी ही नहीं, ये तो ईश्वरीय पदार्थ थे। जो पैसे आपने उसको दिए वे भी आपके न थे । वे तो पृथ्वी से निकली हुई धातु के टुकड़े थे। अतएव ईश्वर के निर्मित थे । मजदूरी की ऋण तो परस्पर की प्रेम-सेवा से चुकता होता है, अन्न-धन देने से नहीं। वे तो दोनों ही ईश्वर के हैं । अन्न-धन वही बनाता है और जल भी वही देता है। एक जिल्दसाज ने मेरी एक पुस्तक की जिल्द बॉध दी। मैं तो इस मजदूर को कुछ भी न दे सका। परन्तु उसने मेरी उम्र भर के लिए एक विचित्र वस्तु मुझे दे डाली। जब कभी मैंने उस पुस्तक को उठाया, मेरे हाथ जिल्दसाज के हाथ पर जा पड़े। पुस्तक देखते ही मुझे जिल्दसाज याद आ जाता है वह मेरा अामरण मित्र हो गया है, पुस्तक हाथ में आते ही मेरे अन्तःकरण में रोज भरतमिलाप का-सा समा बैध जाता है। ___ गाढ़े की एक कमीज को एक अनाथ विधवा सारी रात बैठ कर सीती है, साथ ही साथ वह अपने दुःख पर रोती भी है-दिन को खाना न मिला