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. . ( ४२ ) के दर्शन प्रायः सर्वत्र होते है । नित्य के व्यवहार और बातचीत में जिस स्वाभाविक भाषा का प्रयोग होता है वही इनके गद्य में प्राप्त होता है। हमसे शैली रोचक और आकर्षक हो गई है। स्थान-स्थान पर उदू के शन्दों का प्रयोग भी दिखाई देता है और अँगरेज़ी के भी, जो अस्वा भाविक नहीं जान पड़ते । इनकी धारा-प्रवाह शैली मे कहीं कहीं शब्दों का उलट फेर भी दिखाई दे जाता है और कहीं कहीं अलकृत भाषा भी पाई जाती है । तात्पर्य यह है कि उग्र जी की शैली में नवीन युग का उत्कर्प, उत्साह और भावावेश अधिक मात्रा में मौजूद है। इनकी अपनी स्वतन्त्र भाषा शैली और स्वतत्र रचना-क्रम एक अलग आदर्श रखता है। -