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[हिन्दी-गध-निर्माण
दोहा-धन वैभव तो और हू, बहुत वृत्रियन माहिं ।
पै सुप्रजा हित तुमहिं में, अधिक मेद कछु नाहिं ॥१७॥ सोरठा-राखत बन्यु समान, याही ते तुम सबन को ।
करत मान सन्मान, दुःख न काहू देत हो ।।१७६।। दुप्यन्त इन्होंने तो मेरे मलीन मन को फिर हरा कर दिया ।
[इधर-उधर फिरता है] प्रतीहारी–महाराज, अग्निशाला की छत लिपी-पुती स्वच्छ पड़ी है और
निकट ही होम धेनु बँधी है वहीं चलिये। दुष्यन्त-(सेवकों के कन्धों पर सहारा लेता हुश्रा छत पर चढ़ कर बैठता है)
हे प्रतीहारी, कण्व मुनि ने किस निमित्त हमारे पास ऋषि मेजे हैं। तपसीन के कारज माँहि किधों, अव याय बड़ो कोई विघ्न परयो । वनचारी किधौ पशु पक्षिन में, काहु दुष्ट नयो उतपात करयो । फल फूलिवो वेलि लता वन कौ, मति मेरे ही कर्मन त विगरयो ।
इतने मोहि घेरि सदेह रहे इन धीरज मेरे हिये को हरन्यो ।।१७७|| प्रतीहारी-मेरे जान तो ये तपस्वी महाराज के सुकमो से प्रसन्न होकर धन्य
वाद देने आये हैं।
शकुन्तला को साथ लिए हुए गौतमी सहित मुनि
आते हैं और कंचुकी और पुरोहित उनसे आगे हैं] द्वारपाल-इधर प्रायो, महात्माओ इस मार्ग प्रायो। .. शारगरव-हे शारद्वत
यदपि भूप वह है वड़ भागी, थिर मर्याद धर्म अनुरागी। । जासु प्रजा में नीचहु काई, कुमत कुमारग लीन न होई ॥१७८। पै मैं तौ नित रह्यो अकेली, याते नाहिं सुहात सहेली।
मनुप भरों मोहिं यह नृप द्वारा, दीखत जिमि घर जरन अंगारा ।।१७६।। शारद्वत-सत्य है जब से नगर में धसे हैं यही दशा मेरी भी हो गई है'दोहा-इन सुख लोभी जनन मैं, देखत हूँ या भाय ।
नहायो धोयो लखनु ज्यो, मैले को दुख पाय ॥१८॥