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हिन्दी भाषा का विकास] ... ... हिन्दी भाषा का विकास .
[ले० उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी “प्रेमघन"] . ' कहते हैं कि प्रारम्भ में जब उस त्रिगुणातीत त्रिकालज्ञ परब्रहा परमेश्वर . ने इस जगत की सृष्टि करनी विचारी, तव प्रथम ही उसकी आदि शक्ति ने
शन्द की सृष्टि की; वह शब्द प्रणव था, जिसमें न केवल तीन मात्रा व अक्षर , वरञ्च त्रिगुणमयी माया, त्रिवेद और त्रिशक्ति, यों ही त्रिलोक की सारी सामग्री बीज रूपसे अन्तर्हित थी। उसी बीज से क्रमशः समस्त वर्ण शब्द और तीनों वेद उत्पन्न हुए । प्रकृति के त्रिगुणात्मका होने के कारण उसकी समस्त सृष्टि भी त्रिगुणमयी हुई । सुतरा चेतन सृष्टि के उत्तमाश प्राणियों में भी उन तीन गुणों के न्यूनाधिक्य के अनुसार स्वतः देवता मनुष्य और असुर तीनों का . विस्तार हुआ। . भाषा की. वैसी ही दशा हुई । जैसे एक ही प्रकृति ने तीन भागों में · विभक्ति हो न्यूनाधिक गुणों के कारण एक ही जाति के प्राणियों को मन, कर्म और स्वभाव के अनुसार देवता, मानव, और असुर वनाया उसी प्रकार स्वभाव से उत्पन्न उस एक ही ब्राझी व देववाणी अथवा वेदभाषा को उन तीनों की प्रकृति और उच्चारण ने क्रमशः तीन रूप दिये। मानों मूलभाषा त्रिपथगा की तीन धारा हो बही । अर्थात् पहिली देववाणी जो देवता और विज्ञ जनों में अपने यथार्थ रूप मे स्थित रही, दूसरी जो सामान्य मनुष्यों से यथार्थ न उच्चारित होकर अशुद्ध रूप धारण कर चली और तीसरी असुरों से विशेष विकृत
और विपरीत होकर विस्तारित हुई । पहिलो का नाम देववाणी वा वैदिकभाषा हुआ, जो क्रमशः विद्वानों द्वारा संस्कृत हो अन्त को संस्कृत कहलाई । दूसरी वैदिक अपभ्रश अथवा मूल प्राकृत । यों ही तीसरी, बासुरी, राक्षसी वा पैशाची कि जिसकी अति अधिक वृद्धि हुई और जिसकी शाखाएँ आर्यावर्त की सीमाओं को लाघ कर दूर-दूर तक पहुँच बहुत विकृत हो क्रमशःमूल से सर्वथा विलक्षण हो गई । इस कारण आर्य जाति से पूर्वोक्त केवल दो ही भाषाओं से सम्बन्ध बच रहा-अर्थात् देवगणी और नरवाणी अथवा देवभाषा और