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- . [हिन्दी गद्य-निर्माण गर्जन-तर्जन के साथ अन्य कवियों को लड़ा है। उन कठोर का कवियों की
दहाड़े सुन कर ही शायद अन्य कवि भयभीत होकर अपने-अपने गृह-गहरों ..में जा छिपे हैं। किसी से अब तक कुछ करते-घरते नहीं बना । इन
के महाकवियों महाराजों की समझ में जो कवि इनकी जैसी कविता के प्रशंसक, पोषक या प्रणेता नहीं वे कवि नहीं किन्तु कवित्व हंता हैं । इस "कवित्व हंता" पद के प्रयोग का कर्ता आप कवियों के इस किङ्कर ही को न समझिये ! यह शब्द एक और ऐसे ही शब्द के वदले यहाँ लिखा गया है जो है तो समानार्थक, पर सुनने में निकृष्ट-निर्दयता मूचक है । वह शब्द, इस विषय में. एक ऐसे साहित्य-शास्त्री द्वारा प्रयोग मे लाया गया है जो संस्कृत-भाषा मे रचे गये अनेक महाकाव्यों के रसाव मे आशैशव गोता लगाते चले आ रहे हैं और जिनका निवास इस समय लखनऊ के अमीनाबाद मुहल्ले में है । अतएव इस शन्दात्मक कठोर कशाघात के श्रेय के अधिकारी वही है।
सत्कवि के लिए आडम्बर की मुतलक जरूरत नहीं । यदि उसमें कुछ सार है तो पाठक और श्रोता स्वय ही उसके पास दौड़े आवेंगे । श्राम की मञ्जरी क्या कभी भौरों को बुलाने जाती है ?
न रत्नमन्विष्यति मृग्यते हि तत् ' आजकल के कुछ कवि कवि-कर्म में कुशलता-प्राप्ति की चेष्टा तो कम करते हैं, आडम्बर-रचना की बहुत । शुद्ध लिखना तक सीखने के पहले ही वे कवि बन जाते हैं और अनोखे-अनोखे उपनामों की लांगूल लगाकर अनाप-शनाप लिखने लगते हैं। वे कमल, विमल, यमल और अरविन्द, मिलिन्द, मकरन्द आदि उपनाम धारण करके अखबारों और सामयिक पुस्तकों का कलेवर भरना प्रारम्भ कर देते हैं । अपनी कविताओं ही में नहीं, यों भी जहाँ कहीं वे अपना नाम लिखते हैं. काव्योपनाम देना नहीं भूलते। यह रोग उनको उदू के शायरों की बदौलत लग गया है । पर इससे कुछ भी होता जाता नहीं। शेक्सपियर, मिल्टन, वाइरन और कालिदास, भारवि, भवभूति आदि कवि इस रोग से वरी थे। फिर भी उनके काव्यों का देश-देशा