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. [हिन्दी-गद्य-निर्माण भाषाएँ हैं जैसा कि हमारी भाषा का श्रादि रूप शौरसेनी वा अर्द्ध मागधी, तो दूसरा नागर अपभ्रंश और तीसरा प्राचीन भाषा है.। औरों से यहाँ कुछ प्रयोजन नहीं है। इसी से हम केवल अपनी ही भाषा के रूपों और अवस्थाओं का क्रम कहते हैं । अर्थात्
वर्तमान हमारी भाषा का प्रथम रूप वा उसकी शैशवावस्या पुरानी भाषा अर्थात् प्राकृत अपभ्रंश मिश्रित भाषा है । जिसकी झलक आज चन्द. बरदाई के पृथ्वीराजरासो में पाई जाती है। उसकी यौवनावस्था का दूसरा रूप भाषा वा ब्रजभाषा अथवा मिश्रित भाषा है। जिसका दर्शन, कबीर, सूर, केशव खुसरो, जायसी, बिहारी और देव, द्विजदेव आदि की कविताओं में हम पाते हैं । किशोरावस्था और क्रमशः उसकी नवयौवनावस्था भी कहें, तो कुछ हानि नहीं। तीसरी अवस्था इसका वर्तमान रूप है जिसके पद्य के कवियों में देवस्वामी, वाबू हरिश्चन्द्र, प्रतापनारायण मिश्र, अम्बिकादत्त व्यास श्रीनिवासदास, और श्रीधर पाठक आदि, योंही गद्य के लल्लू लालजी, राजा शिवप्रसाद, राजा लक्ष्मणसिंह, भारतेन्दु और वर्तमान समय के अन्य सुलेखक हैं । जिसे उसकी पूर्ण यौवनावस्था वा प्रौढ़ावस्था भी का सकते हैं।
उपर लिखे क्रम के अनुसार अब हमारी भाषा, मारतभारती के अंकुर से क्रमशः उन्नत होती, अनेक अवस्थाओं के भिन्न-भिन्न रूपों में परिवर्तित होती, मानों भाषावृक्ष का मुख्य स्तम्भस्वरूप है। अन्य सब प्रान्तिक भाषाएँ जिसकी शाखाएँ हैं, जिनमें कोई पुष्ट और पतली, कोई दीर्घ और कोई लघु है ! साराश, हमारी भाषा का क्रम प्रारम्भ से अन्त तक एक प्रकार मूल से अब तक लगा चला आ रहा है और इसकी प्रधानता अद्यापि वत. मान हैं। जितना इसका विस्तार और प्रचार है, औरों का नहीं है । क्योंकि यह मुख्य या मध्यदेश की भाषा है । जहाँ सदैव साधु वा नागरी भाषा का प्रचार रहा और जहाँ से मूल भाषा विकास प्रसरित होता हुआ अन्य प्रान्तों में जाकर अपने स्वरूपों को विशेष परिवर्तित करता रहा है । जैसे खान से निकल कर रत्न दूर-दूर पहुँच कर सुधारे और सवार