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[हिन्दी-गद्य निर्माण अर्द्ध शौरमेन वा नागर । परन्तु ये सब विशेषण उन्हीं भाषाओं के प्रचार के साथ हुए जैसे कि आज व्रजभाषा, मिश्रित भाषा, हिन्दी, नागरी, खड़ी बोली अथवा उसके अनेक भेद, जो बहुधा आज केवल विभेद बढ़ाने ही के लिये बढ़ाकर कहे जाते हैं । क्योंकि स्थानिक वोलियाँ भाषा नहीं कहलायेंगी, भाषा वही है कि जिसमें उन सव स्थानों वा प्रान्तों के सम्यजन श्रापस में मिलकर एक दूसरे से वातें करते हों, वा जिसका कोई पृथक साहित्य हो । यों तो इस महादेश की वोलियों के सम्बन्ध में यह कहावत है कि- "दस विगहा पर पानी वदलै, दस कोसै पर वानी। "
अस्तु । हमारी भाषा और सब प्रान्तिक भाषाओं से प्रधान और प्राचीन है, तथा एक लेखे यही सवकी जननी है। क्योंकि सामान्यतः संस्कृत और विशेषतः प्रधान वा महाराष्ट्रीय प्राकृत से इसका अद्यावधि साक्षात् सम्बन्ध वर्चमान है। पीछे से पड़ा इसका हिन्दी' नाम भी यही साक्षी देता है, अर्थात् वह भाषा कि जो समस्त हिन्द वा हिन्दोस्तान की हो ।
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मेले का ऊँट . .
[ लेखक-बाबू बालमुकुन्द गुप्त ] भारतमित्र-सम्पादक ! जीते रहो-दूध बताशे पीते रहो । भाँग मेनी सो अच्छी थी। फिर वेसी ही भेजना । गत सप्ताह अपना चिट्ठा अपने पत्र में टटोलते हुए 'मोहन मेले' के लेख पर निगाह पडी। पढ़कर आपकी रष्टि पर , अफसोस हुअा। पहली बार आपकी बुद्धि पर अफसोस हुआ था। भाई! आपकी दृष्टि गिद्ध की सी होनी चाहिये, क्योंकि आप सम्पादक है । किन्तु आप की दृष्टि गिद्ध की सी होने पर भी उस पूरवे गिद्ध की सी निकली जिसने, ऊँचे अकाश में चढ़े-चढ़ भूमि पर एक गेहूँ का दाना पड़ा देखा, पर उसक नीचे जो जाल बिछ रहा था वह उसे न सूझा । यहाँ तक कि उस गेहूँ , दाने को चुगने से पहले जाल में फंस गया।
'मोहन मेले में आपका ध्यान दो एक पैसे की एक पूरी की तरफ गया।
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