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____ शकुन्तला नाटक] - .
, या कारज के माहि, करो परस्पर बात श्राब ॥१८॥ । शकुन्तला--(भाप ही भाप) देखू अब आर्य पुत्र क्या कहते हैं। । दुष्यन्त-यह क्या स्वांग है ? ___ शकुन्तला-(भाप हो बार) हे दई ! राजा का यह बचन तौ निरा अग्नि
., शारंगरव-हैं यह क्या ! हे राजा तुम तौ लोकाचार की बातें जानते हो। दोहा-जाय सुहागिनी वसति जो अपने पीहर धाम । .
- लोग बुरी शंका करें, यदपि सतीहू वाम ॥१६॥ ' ' , यातें चाहतं 'बन्धुजन, रहे सदा प्रतिगेह ।
- प्रमदा नारि सुलच्छनी, बिनहु पिया के नेह ॥१६॥ दुष्यन्त-क्या मेरा इस भगवती से कभी व्याह हुआ था। .. शकुन्तला--(उदास होकर आप ही प्राप) अरे मन ! जो तुझे डर था, सोई
। आगे आया ।। ' शारंगरव-क्या अपने किये में अरुचि होने से धर्म छोड़ना राजा को
. योग्य है ? ५. दुभ्यन्त-यह झूठी कल्पना का प्रश्न क्यों करते हो।
शारंगरव-क्रोध से) जिनको ऐश्वर्या का मद होता है उनका चित्त स्थिर ।।
'नहीं रहता। । दुप्यन्त-यह कठोर बचन तुमने मेरे ही लिये कहा।
गौतमी-(शकुन्तला से) हे पुत्री, अब थोड़ी देर को लाज छोड़ दे, ला मैं - तेरा घूघट खोल दूँ जिससे तेरा भर्चा तुझे पहचान ले।
[धूघट खोलती है] दुष्यन्त-(शकुन्तला को देख कर आप ही भाप)दोहा-वरी कि कबहू ना वरी, परी हिये उरमेट ।
ठाढी रूप ललाम लै, सनमुख मेरे मेट ॥१२॥ “सकत न याको लैन सुख, नहि मैं त्यागि सकात । अोस भरे सद कुन्द को, जैसे मधुकर प्रात ॥१६॥