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शकुन्तला नाटक] .
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रोती हुई पुरोहित के पीछे-पीछे तपस्वियों सहित जाती है और राजा '' शाप के वश भूना हुआ भी शकुन्तला ही का ध्यान करता है] (नेपथ्म में)-अहा ! बड़ा अचम्भा हुआ।
दुष्यन्त-(कान लगाकर ) क्या हुआ ? . [पुरोहित पाता है ] -- 'पुरोहित-(पाश्चय करके) महाराज ! यह अद्भुत बात हुई।
दुष्यन्त-क्या हुआ? पुरोहित-जब यहाँ से कण्व के चेलों की पीठ फिरी.. दोहा-निन्दा अपने भाग की, चली करत वह तीय।
रोई बांह पसार के, भई बिथित अति हीय । दुष्यन्त-तब क्या हुआ ? ' पुरोहित-दोहा-तब अप्सर तीरथ निकट, जाने कित ते श्राय। ज्योति एक तिय रूप में, लै गई वाहि उड़ाय ॥२१॥
- . [ सब अाश्चर्य करते हैं ] . दुष्यन्त-मुझे जो बात पहले भास गई थी सोई हुई । अब इसमें तर्क करना .
.. - निष्फल है । तुम जानो विश्राम करो। पुरोहित-महाराज की जय, हो।
[बाहर आता है] दुग्यन्त-हे वेत्रवती मेरा चित्त व्याकुल हो रहा है तू. मुझे शयन स्थान की
गैल बेता। प्रतीहारी-महाराज, इस मार्ग आइये । दुष्यन्त-चलता हुश्रा श्राप ही प्राप)
दोहा-बिन आए सुधि व्याह को, मै त्यागी मुनि धीय । .. पै हीयो मेरो कहत, वह साँची है तीय ॥२१४||
[ सब जाते हैं।