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[हिन्दी-गद्य-निर्माण वह हमारी दशा के अनुसार वर्तेगे । यह नहीं कि उन्हें अपने नियम पालने से काम । हम चाहे मरें या जियें । रत्नमयी मूर्ति से यह भाव है कि हमारा ईश्वर-सम्बन्ध अमूल्य है । जैसे पन्ना, पुखराज की मूर्ति विना एक गृहस्थी भर का धन लगाए नहीं हाथ आती। वह बड़े ही अमीर को 'साध्य है वैसे ही प्रेममय परमात्मा, भी हमको तभी मिलेगे जब हम अपने ज्ञान का अभिमान छोड़ दें। यह भी बड़े ही मनुष्य का काम है ! मृत्तिका की मूर्ति का यह अर्थ है कि उनकी सेवा हम सब ठौर कर सकते हैं। जैसे मिट्टी और तेल का अभाव कहीं नहीं है वैसे ही ईश्वर का वियोग कहीं नहीं है । धन और गुण का ईश्वर-प्राप्ति में कुछ काम नहीं । यह निर्धन के धन हैं । 'हुनरमन्दों . से पूछे जाते हैं वावे हुनर पहले'। या यों समझ लो कि सब पदार्थ आदि
और अन्त में सब ईश्वर में उत्पन्न हैं, ईश्वर में ही लय होते हैं । इस वाते का दृष्टान्त मिट्टी से खूव घटता है । गोबर की मूर्ति यह सिखाती है कि ईश्वर आत्मिक रोगों का नाशक है हृदय मन्दिर की कुवासनारूपी दुर्गन्ध को हरता है । पारे की, मूर्ति में यह भाव है कि प्रेमदेव हमारे पुष्टि कारक 'सुगन्धं पुष्टिवर्धन' हैं । यह मूर्ति बनाने वा बनवाने का सामर्थ्य न हो तो पृथ्वी और जल आदि की अष्ट मूर्ति बनी वनाई -पूजा के लिये विद्यमान है। . के वास्तविक प्रेम-मूर्ति मनोमन्दिर में विराजमान है। पर यह दृश्य' मूर्तियां भी निरर्थक नहीं हैं । मूर्तियों के रंग भी यद्यपि अनेक होते हैं पर मुख्य • रंग तीन हैं । श्वेत जिसका अर्थ यह कि परमात्मा शुद्ध है, स्वच्छ है, उनकी किसी बात मे किसी का कुछ मेल नहीं है । पर सभी उसके ऐसे आश्रित हो सकते हैं जैसे उजले रंग पुर सब रंग । वह त्रिगुणातीत तो हुई पर त्रिगुणालय भी उसके बिना कोई नहीं । यदि हम सतोगुणमय भी कहें तो,बेअदवी नहीं, करते ! दूसरा लाल रग है जो रजोगुण का वर्ण है । ऐसा कौन कह सकता." है कि यह संसार भर का ऐश्वर्य किसी और का है । और लीजिये कविता के आचार्यों ने अनुराग का रंग लाल कहा है। फिर अनुराग-देव का रंग और क्या होगा ? तीसरा रंग काला है । उसका भाव सब सोच सकते हैं कि सबसे । पक्का रंग यही, है, इस पर दूसरा रंग नहीं चढ़ता। ऐसे प्रेम-देव सबसे पक्के