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[हिन्दी-गद्य-निर्माण
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वैषणवता और भारतवर्ष
[ लेखक-श्री भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ] यदि विचार करके देखा जायगा तो स्पष्ट होगा कि भारतवर्ष का सबसे प्राचीन मत वैष्णव है । हमारे ग्रोर्य लोगों ने सबसे प्राचीन काल में सभ्यता का अवलम्बन किया और इसी हेतु क्या धर्म क्या नोति सव विषय के संसार मात्र के ये दोक्षागुरु हैं । आर्यों ने आदि काल में सूर्य ही को अपने जगत् का सबसे उपकारी और प्राणदाता समझकर ब्रह्म माना और इनका मूल मन्त्र गायत्री इसी से इन्हीं सूर्यनारायण की उपासना मे कहा गया है। सूर्य की किरणे 'श्रापोनारा इति प्रोक्त श्रापो वे नरसूनवः' जलों में और मनुष्यों में व्याप्त करती हैं और इस द्वारा ही जीवन प्राप्त होता है इसी से सूर्य का नाम नारायण है। हम लोगों के जगत् के ग्रहमात्र जो सव प्रत्येक ब्रह्माण्ड हैं इन्हीं की अाकर्षण शक्ति से स्थिर है इसी से नारायण का नाम अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड है । इसी सूर्य का वेद में नाम विष्णु है। क्योंकि इन्हीं की व्यापकता से जगत् स्थित है । इसी से प्रायों में सबसे प्राचीन एक ही देवता थे और इसी से उस काल के भी आर्य वैष्णव ये। कालान्तर में सूर्य में चतुभुज देव की कल्पना हुई। "येयः सदा सवितृ मंडल मध्यवर्ती नारायणः सरसिजासनसंनिविष्ट " 'तद्विष्णोः परमं पदम्। 'विष्णोः कर्माणि पश्यत' 'यत्र गावे भूरिशृंगाः 'इदं विष्णु-विचक्रमे' इत्यादि श्रुति जो सूर्य नारायण के
आधिभौतिक ऐश्यर्य का प्रतिपादक थीं, आधिदैविक सूर्य की विष्णुमूर्ति के वर्णन में व्याख्यात हुई। चाहे जिस रूप से हो वेदों ने प्राचीन काल से विष्णु-महिमा गाई उसके पीछे उस सर्य की एक प्रतिमूर्ति पृथ्वी पर मानी गई, अर्थात् अग्नि पार्यों का दूसरा देवता अग्नि है । अग्नि यज्ञ है और 'यशो वै विष्णुः । यज्ञ ही से रुद्र देवता माने गये। श्राों के एक छोड़कर . दो देवता हुए । फिर तीन और तीन से ग्यारह को तृविधि करने से तैंतीस . और इस तेंतास से तैंतीस करोड़ देवता हुए,। इस विषय का विशेष वर्णन