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[हिन्दी-गद्य-निर्माण पर उड़ जरा भी न सके । सत्य बोला "भोज, वस यही तेरे पुण्यकर्म है, इसी । स्तुति वंदना और विनती प्रार्थना के भरोसे पर तू स्वर्ग में जाया चाहता है । सूरत तो इनकी बहुत अच्छी है पर जान विलकुल नहीं । तूने जो कुछ किया । केवल लोगों को दिखाने को, जी से कुछ भी नहीं।" जो तू एक बार भी जी से पुकारा होता कि "दीनवन्धु दीनानाथ दीन हितकारी! मुझ पापी महा । अपराधी दूबते हुए को बचा और कृपा दृष्टि कर" तो वह तेरी पुकार तीर की तरह तारों के पार पहुंची होती। राजा ने सर नीचा कर लिया; उससे उत्तर कुछ न बन पाया । सत्य ने कहा कि भोज ! अव श्रा, फिर इस मन्दिर . के अन्दर चले और वहाँ तेरे मन के मन्दिर को जाचें । यद्यपि मनुष्य के मन । के मन्दिर मे ऐसे ऐसे अधेरे तहखाने और तलवरे पड़े हुए हैं कि उनको सिवाय सर्वदर्शी घट-घट अन्तर्यामी सकल जगत्स्वामी के और कोई भी नहीं देख अथवा जांच सकता, तो भी तेरा परिश्रम व्यर्थ न जायगा।
____राजा सत्य के पीछे खिंचा-खिंचा फिर मन्दिर के अन्दर घुसा, पर अब तो उसका हाल ही कुछ से कुछ हो गया । सचमुच सपने का खेल सा दिख- लाई दिया । चाँदी की सारी चमक जाती रही सोने की बिलकुल दमक उड़
गई, सोने मे लोहे की तरह मोर्चा लगा हुआ जहाँ-जहाँ मुलम्मा उड़ गया था भीतर की ईट पत्थर कैसा बुरा दिखलाई देता था । जवाहिरों की जगह केवल , काले-काले दाग रह गए थे । और संगमर्मर की चट्टानों में हाथहाथ भर गहरे गढ़े पड़ गए थे । राजा यह देख कर भौचक्का-सा रह गया; औसान जाते रहे, हक्का-बक्का बन गया। उसने धीमी आवाज से पूछा कि ये टिड्डीदल की तरह इतने दाग इस मन्दिर में कहाँ से आए ? जिधर में निगाह उठाता हूँ सिवाय काले-काले दागों के और कुछ भी नहीं दिखलाई देता'। ऐसा तो छीपी छींट भी नहीं छापेगा और न शीतला से बिगड़ा किसी का चेहरा ही देख पड़ेगा। सत्य बोला कि "राजा ये दाग जो तुझे इस मन्दिर : मे दिखलाई देते हैं दुर्वचन हैं जो दिन-रात तेरे मुख से निकला किये हैं। याद तो कर तूने क्रोध में प्राकर कैसी कड़ा-कड़ी बाते - लोगों को सुनाई हैं । क्या खेल मे और क्या अपना अथवा दूसरे का चित्त