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गीता दर्शन भाग-3
न इंद्रियों में आसक्ति है जिसकी, न कर्मों में; ऐसे क्षण UI में, जहां ये दो आसक्तियां शेष नहीं हैं—ऐसे क्षण में
ऐसा पुरुष योगारूढ़ कहा जाता है। दो बातों को थोड़ा-सा समझ लेना उपयोगी है, इंद्रियों में आसक्ति नहीं है जिसकी और न कर्मों में। दोनों संयुक्त हैं। इंद्रियों में आसक्ति हो, तो ही कर्मों में आसक्ति होती है। इंद्रियों में आसक्ति न हो, तो कर्मों में आसक्ति का कोई उपाय नहीं है। इसलिए कृष्ण जब भी कुछ कहते हैं, तो उसमें एक वैज्ञानिक प्रक्रिया की सीढ़ी होती है। पहले कहते हैं, इंद्रियों में आसक्ति नहीं जिसकी। इंद्रियों में आसक्ति नहीं, तो कर्म में आसक्ति हो ही नहीं सकती। कर्म की सारी आसक्ति, इंद्रिय की आसक्ति का फेलाव है।
आप अगर धन इकट्ठा कर रहे हैं और धन को इकट्ठा करने में जो कर्म करना पड़ता है, उसमें बड़े आसक्त हैं, तो ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जो सिर्फ कर्म करने के लिए आसक्त हो। धन इंद्रियों के लिए जो दे सकता है, उसका आश्वासन ही आसक्ति का कारण है। धन इंद्रियों के लिए जो दे सकता है, उसका आश्वासन ही कर्म का आकर्षण है।
अगर कल पता चल जाए कि धन अब कछ भी नहीं खरीद सकता, तो सारा आकर्षण क्षीण हो जाएगा। तब दुकान पर बैठकर आप दो पैसे ज्यादा छीन लें ग्राहक से. इसकी उत्सकता में न रह जाएंगे। कभी भी न थे। दो पैसे छीनने को कोई भी उत्सुक न था। दो पैसे में कुछ मूल्य है! मूल्य क्या है? मूल्य इंद्रियों की तृप्ति है। धन का ठीक-ठीक जो मूल्य है, वैल्यू है, वह इकॉनामिक नहीं है, वह आर्थिक नहीं है। धन की गहरी मूल्यवत्ता मानसिक है। धन का वास्तविक मूल्य अर्थशास्त्री तय नहीं करते राजधानियों में बैठकर। धन का वास्तविक मूल्य मन की वासनाएं तय करती हैं, इंद्रियां तय करती हैं।
इसलिए महावीर जैसा व्यक्ति अगर धन नहीं साथ रखता, तो उसका कारण धन का त्याग नहीं है। उसका गहरा कारण इंद्रियों के लिए तृप्ति के आयोजन की जो आकांक्षा है, उसका विसर्जन है। फिर धन को रखने का कोई कारण नहीं रह जाता। फिर वह सिर्फ बोझ हो जाएगा। उसको ढोने की नासमझी महावीर नहीं करेंगे।
धन के लिए आदमी इतना आकल-व्याकल श्रम करता है। इतना दौड़ता है। वह इंद्रियों के लिए दौड़ रहा है। धन में भरोसा है, विश्वास है। धन खरीद सकता है सब कुछ। धन सेक्स खरीद सकता है। धन भोजन खरीद सकता है। धन वस्त्र खरीद सकता है।
धन मकान खरीद सकता है। धन सुविधा खरीद सकता है। धन जो खरीद सकता है, उसमें ही धन का मूल्य है। धन सब कुछ खरीद
सकता है। सिर्फ सुख को छोड़कर, धन सब कुछ खरीद सकता है। - लेकिन अगर यह आपको पता चल जाए कि धन सुख नहीं खरीद सकता, तो धन की दौड़ बंद हो जाए। इसलिए धन आश्वासन देता है कि मैं सुख खरीद सकता हूं। मैं ही सुख खरीद
सकता हूं! खरीदता है दुख, लेकिन आश्वासन सुख का है। - सभी नर्कों के द्वार पर जो तख्ती लगी है, वह स्वर्गों की लगी है। | इसलिए जरा सम्हलकर भीतर प्रवेश करना। तख्ती तो स्वर्ग की लगी | है। नर्क वाले लोग इतने तो होशियार हैं ही कि बाहर जो दरवाजे पर
नेम-प्लेट लगाएं, वह स्वर्ग की लगाएं। नहीं तो कौन प्रवेश करेगा? लिखा हो साफ कि यहां नर्क है, कोई प्रवेश नहीं करेगा।
तो आप इस भ्रम में मत रहना कि नर्क के द्वार पर दो हड्डियों का क्रास बनाकर और एक मुर्दे का चेहरा लगा होगा और लिखा होगा, डेंजर, इनफिनिट वोल्टेज! ऐसा कुछ नहीं लिखा होगा। लिखा है, स्वर्ग। आओ, कल्पवृक्ष यहीं है! तभी तो कोई नर्क के द्वार में प्रवेश करेगा। द्वार तो सब स्वर्ग के ही प्रवेश करते हैं लोग, पहुंच जाते हैं नर्क में, यह बात दूसरी है। द्वार तो सभी स्वर्ग के मालम होते हैं।
इंद्रियां तृप्ति चाहती हैं। धन तृप्ति को दिलाने का आश्वासन दिलाता है। जीवन कर्म में रत हो जाता है। कर्म की आसक्ति, मल में इंद्रियों की ही तृप्ति के लिए दौड़ है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, इंद्रियों में जिसकी आसक्ति न रही। किसकी न रहेगी इंद्रियों में आसक्ति? हम तो जानते ही नहीं कि इंद्रियों के जोड़ के अलावा भी हममें कुछ और है। है कुछ और? अगर आंख फूट जाए मेरी-आपकी नहीं कह रहा–अगर मेरी आंख फूट जाए, मेरे कान टूट जाएं, मेरे हाथ कट जाएं, मेरी जीभ न हो, मेरी नाक न हो, तो मैं क्या हूं? कुछ भी न रहा। इन पांच इंद्रियों के जोड़ से अगर मेरी एक-एक इंद्रिय निकाल ली जाए, तो पीछे क्या बचेगा? कुछ भी बचता हुआ मालूम नहीं पड़ता।
आदमी की आंख चली जाती है, तो आधा आदमी चला जाता है। कान चले जाते हैं, तो और गया। हाथ चले जाते हैं, तो और गया। अगर हमारी पांचों इंद्रियां छीनी जा सकें और हमें किसी तरह जिंदा रखा जा सके, तो हममें क्या बचेगा? कछ क्योंकि हमारा सारा अनुभव इंद्रियों के अनुभव का जोड़ है। अगर हमें लगता है कि मैं कुछ हूं, तो वह मेरी इंद्रियों का जोड़ है। तो जिसको ऐसा लगता है कि मैं इंद्रियों का जोड़ हूं, वह पुरुष