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गीता दर्शन भाग-3
क्योंकि एक बार आदमी को यह पता चल जाए और यह खयाल में आ जाए कि प्रकृति में परमात्मा है और परमात्मा में प्रकृति है, शायद हम प्रकृति से ऊपर नजर उठाने को कभी राजी न हों। कभी राजी न हों। क्योंकि हम कहें कि जब प्रकृति में ही परमात्मा है — खाने-पीने में, कपड़े पहनने में, मकान बनाने में - तो फिर और परमात्मा की खोज की जरूरत क्या है? जब इस शरीर में ही परमात्मा है, तो फिर शरीर ही परमात्मा हो जाएगा। हम तत्काल इस बात को अपने मतलब की तरफ झुका लेंगे।
और आदमी बड़ा कुशल है, वह सब चीजों के अर्थ अपनी तरफ झुका लेता है। क्योंकि दो ही रास्ते हैं। या तो अर्थ की तरफ आप झुकिए, या तो सत्य की तरफ आप झुकिए; या सत्य को अपनी तरफ झुका लीजिए। अन्यथा बेचैनी अनुभव होगी।
जिस दिन कोई जानेगा बड़े वर्तुल को, परमात्मा को, उस दिन वह शायद यह भी जान ही लेगा कि प्रकृति भी उसमें ही है, वह भी प्रकृति में है। लेकिन हमसे यह कहना, यह सत्य कहना, खतरनाक है । कहना इसलिए खतरनाक है कि अगर हमें यह बात पक्की हो जाए कि हम जो कर रहे हैं, उसमें भी परमात्मा है, तो फिर शायद परमात्मा की तरफ नजर उठाने का खयाल ही मिट जाए। जरूरत भी नहीं रह जाती।
इसलिए कृष्ण बहुत सोच-विचारकर कहते हैं, प्रकृति मुझमें है अर्जुन, लेकिन मैं प्रकृति में नहीं हूं। तो तू प्रकृति में कितना ही खोजता रहे, मुझे न पा सकेगा। हां, मुझे पा ले, तो प्रकृति तो पाई
यह भी बहुत मजे की बात है। कोई आदमी कितना ही धन खोजे, धनी नहीं हो पाता। लेकिन कोई आदमी परमात्मा को खोज ले, तो दरिद्रता भी धन हो जाती है।
जीसस का वचन है, सीक यी फर्स्ट दि किंगडम आफ गॉड, देन आल एल्स विल बी एडेड अनटु यू । खोज लो पहले प्रभु के राज्य को, और फिर सब - सब - साथ में मिल जाएगा।
लेकिन हम सबको खोजने चलते हैं, प्रभु को छोड़कर। तब प्रभु तो मिलता ही नहीं, सबमें से भी कुछ नहीं मिलता है। सिर्फ दौड़-धूप और आखिर में राख हाथ में लगती है— सपनों की राख, आशाओं की राख । यश कोई कितना ही खोजे, यश हाथ लगेगा नहीं। और कोई परमात्मा को खोज ले, तो यशस्वी हो जाता है, तत्क्षण | कोई कितना ही प्रेम खोजे, प्रेम मिलेगा नहीं। और कोई प्रार्थना को खोज ले, तो जीवन प्रेम की सुगंध से भर जाता है; ऐसी
सुगंध से, जो फिर कभी चुकती नहीं ।
हम कुछ भी खोजें प्रकृति में, हमारे हाथ में कुछ लगेगा नहीं; मिट्टी - पत्थर ही लगेंगे। यद्यपि प्रत्येक मिट्टी- पत्थर के भीतर परमात्मा छिपा है। लेकिन जो प्रकृति में खोजने चला है, वह परमात्मा के प्रति अंधा होता है। वह नैरोड, उसकी कांशसनेस तो हड्डियों में अटकी रहती है, नीचे। वह ऊपर की तरफ नहीं उठ पाता है।
कितनी निकट थीं अल्तामिरा की वे चित्रावलियां ! जरा-सा तो सर्चलाइट ऊपर उठाना था। सर्चलाइट हाथ में था । जरा तो आंख ऊपर करनी थी। लेकिन जो नीचे खोजने में लगा है, उसकी आंख ऊपर नहीं उठ पाती।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, सत्व, रज, तम, सब मुझमें हैं अर्जुन, लेकिन मैं उनमें नहीं हूं।
बड़ी मजेदार बात है। अगर कोई आदमी परमात्मा के बिना सात्विक भी हो जाए, तो भी धार्मिक नहीं हो सकता। अगर कोई व्यक्ति परमात्मा के बिना सात्विक भी हो जाए, परम सात्विक हो जाए, तो भी धार्मिक नहीं हो सकता। और कोई व्यक्ति कितना ही तामसिक और कितना ही राजसिक हो, अगर परमात्मा में प्रवेश कर जाए, तो तत्काल सात्विक हो जाता है।
अगर आदमी अपने ही बल से सात्विक हो जाए, तो सिवाय अहंकार के और कुछ निर्मित नहीं होता । पायस, पवित्र अहंकार निर्मित होता है। और कोई व्यक्ति कितना ही बुरा हो, दीन हो, हीन हो, पापी हो, और परमात्मा में छलांग लगा जाए, तो तत्काल, जैसे आग में कचरा जल जाए, ऐसे परमात्मा की आग में सब पाप जाते हैं।
और परमात्मा में जब कुछ जलता है, तो अहंकार नहीं बचता, | वह भी जल जाता है। और आदमी जब कुछ भी जलाए, कुछ भी | मिटाए, कुछ भी बनाए, एक चीज पीछे बची रह जाती है- मैं पीछे बचा रह जाता है।
इसलिए सात्विक से सात्विक व्यक्ति भी एक सूक्ष्म अहंकार से पीड़ित रहता है। और परमात्मा तभी उपलब्ध होता है, जब अहंकार की पतली से पतली, बारीक से बारीक दीवाल भी बीच में न रह जाए। और कोई बाधा नहीं है।
कृष्ण का भी मतलब वही है, जो क्राइस्ट का है, कि पहले तू परमात्मा को खोज।
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अर्जुन क्या कह रहा है? अर्जुन यह कह रहा है कि मुझे इस युद्ध से जाने दो। यह तामसिक, राजसिक मालूम पड़ता है। मैं सात्विक