Book Title: Gita Darshan Part 03
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 421
________________ जीवन अवसर है - परमात्मा के बिना हम कहीं भी नहीं पहुंच सकते हैं, चाहे हम लेकिन उसी दिन से बेल बड़ी बेचैन हो गई। क्योंकि भीतर तो कितनी ही यात्रा करें। हम आखिर में पाएंगे कि हम वहीं खड़े हैं, | प्राणों की ऊर्जा बढ़ना चाहती थी। भीतर तो रस चल रहा था। जमीन जहां जन्म ने हमें खड़ा किया था। मौत के वक्त हम वहीं खड़े हुए से रस अपशोषित किया जा रहा था। सूरज से किरणें पीयी जा रही मिलेंगे। हमारी सब दौड़ व्यर्थ जाने वाली है। थीं। हवाओं से आक्सीजन लिया जा रहा था। पानी की धार भीतर असल में परम शक्ति को इनकार करना वैसा है, जैसा मैंने सुना | बह रही थी। यह सब जारी था। और बेल ने कहा, मैं बढुंगी नहीं। है कि एक बेल एक भवन पर चढ़ती थी। लेकिन एक दिन एक समझ सकते हैं, मुसीबत शुरू हो गई। भीतर से बढ़ने का धक्का नास्तिक से उस बेल का मिलना हो गया और उस नास्तिक ने कहा प्राणों में, और बेल अपने को बाहर से रोके। भीतर तो सुगंध जमीन कि यह तेरी मजबूरी है कि तुझमें फूल आते हैं। यह कोई तेरा गौरव से इकट्ठी होने लगी और फूल खिलने को मचलने लगे, और बेल नहीं है। ने इनकार किया कि फूल मैं खिलने न दूंगी। बेल को तो पता ही न था। वह तो फूल खिलते थे, तो आनंद से | जिस बेल में बड़ी बढ़ती होती थी और जो आकाश की तरफ नाचती थी; पक्षियों को निमंत्रण देती थी। सूरज की किरणें आती | | उठती थी, वह जमीन की तरफ झुक गई। उसमें गांठें पड़ गईं। जो थीं, तो सुगंध बिखेरती थी। उस नास्तिक ने कहा, पागल, यह तेरी शक्ति बीज बन सकती थी, वह गांठ बन गई। और जिससे फूल कोई गरिमा और कोई गौरव नहीं है। तू तो मजबूर है बढ़ने को। पैदा होते, उससे बेल सिर्फ बेचैन, परेशान हो गई। रात की नींद खो फूल खिलाने के लिए मजबूरी है तेरी। यह तेरी गुलामी है। तू चाहे | गई, सुबह का आनंद खो गया। पक्षी अब भी गीत गाते, तो बेल तो भी फूल खिलना रुक नहीं सकता। को बुरे मालूम पड़ते। क्योंकि पक्षियों के गीत वसंत की याद जैसा कि सार्त्र ने कहा है। सार्च का प्रसिद्ध वचन है, मैन इज़ | दिलाते, जब फूल खिलते थे। और जब सूरज निकलता, तो बेल कंडेम्ड टु बी फ्री। शायद स्वतंत्रता के साथ कंडेम्ड का प्रयोग | बेचैन होती, उसे याद आती उन दिनों की, जब बेल बढ़ती थी। और दुनिया में किसी दूसरे आदमी ने इसके पहले नहीं किया था। सात्र | जब आकाश में बादल घूमते, तो बेल कष्ट पाती, क्योंकि इन कह रहा है, मनुष्य स्वतंत्र होने के लिए बाध्य है। या कहना चाहिए, | बादलों से उस सब की याद जुड़ी थी, जब इनसे बरसा होती थी और मनुष्य स्वतंत्र होने के लिए निंदित है। उसे स्वतंत्र होना ही पड़ेगा। बेल तृप्त होती थी। स्वतंत्रता उसकी गुलामी है। कोई उपाय नहीं है; स्वतंत्र होना ही अब बेल बिलकुल पागल हो गई। एक दिन घबड़ाकर उसने पड़ेगा। जबर्दस्ती स्वतंत्र किया जा रहा है। परमात्मा से कहा कि मैं बिलकुल पागल हुई जा रही हूं। परमात्मा ऐसा उस नास्तिक ने कहा, यू आर कंडेम्ड टु ग्रो एंड टु फ्लावर। ने कहा, जैसी तेरी मर्जी। मैंने तुझे कभी पागल होने को नहीं कहा। तुम निंदित हो कि तुममें फूल खिलें और तुम बढ़ो। इसमें तुम्हारा | तू अपने ही हाथ से और तू अपने ही आंतरिक स्वभाव से लड़ रही कोई गौरव नहीं है। है। क्योंकि परमात्मा से लड़ना, अपने ही स्वभाव से लड़ना है। निश्चित ही, बेल को बड़ी तकलीफ हुई। फूल तो उसकी छाती जब भी कोई आदमी परमात्मा के खिलाफ खड़ा होता है, तो पर अब भी खिले थे, लेकिन बेकार हो गए। पहली बार अहंकार किसी गहरे अर्थों में अपने खिलाफ खड़ा हो जाता है। वह उन्हीं जागा। और उसने आकाश की तरफ सिर उठाकर परमात्मा से कहा शाखाओं को काटने लगता है, जो उसके प्राण हैं। और जब भी कोई कि बस, अब मैं बढ़ने से इनकार करती हूं। अब मैं इनकार करती | व्यक्ति परमात्मा के विपरीत पीठ करता है, तो वह अपने से ही हूं; ठीक से सुन लो कि अब मैं नहीं बदूंगी। और अब मैं इनकार अजनबी हो जाता है। क्योंकि वह अपने ही तरफ पीठ कर रहा है। करती हूं कि अब मैं फूल नहीं खिलाऊंगी। और अब मैं इनकार | ___ परमात्मा ने कहा कि तू अपने हाथ से मुसीबत में पड़ गई है। ये करती हूं कि मुझमें फल नहीं लगेंगे। जो गांठें तुझे दर्द दे रही हैं, ये तेरे भीतर बीज बन सकती थीं। और परमात्मा ने कहा, जैसी तेरी मर्जी। क्योंकि प्रेम का अर्थ ही यह ये जो पत्ते कुम्हलाकर जमीन की तरफ झुक गए हैं, ये आकाश में है कि वह आपको अपनी मर्जी पर पूरी तरह छोड़ दे। प्रेम का अर्थ | खिले हुए फूल बन सकते थे। और आज पक्षियों के गीत कष्ट देते ही यह है कि वह अपनी मर्जी आपके ऊपर न थोपे। परमात्मा ने हैं, और सुबह की सूरज की किरणें भी प्राणों में भालों की तरह छिद कहा, जैसी तेरी मर्जी। जाती हैं। और आकाश में बादल उठते हैं, पहले भी उठते थे, तब 13951

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