Book Title: Gita Darshan Part 03
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 428
________________ - < गीता दर्शन भाग-3 - नहीं कर पाते हैं। हिप्नोटाइज्ड बाई नेचर। बिलकुल हिप्नोटाइज्ड हैं; | यह दिखाने के लिए कि मैं कुछ हूं...! वह जो छोटे पैर थे, उनकी प्रकृति के गुणों से सम्मोहित हो गए हैं। और मेरा स्मरण नहीं कर हीनता मन में उसको भारी थी। पाते। बस, प्रकृति का ही स्मरण करते हैं। उन्हें कुछ मिलने वाला हिटलर ना-कुछ था। फौज में एक साधारण से सिपाही की तरह नहीं है। लेकिन अगर अनुभव भी मिल जाए, तो बहुत। और जिसे | उसे निकाला गया था। वह दिखाने को उत्सुक हो गया कि मैं भी अनुभव मिल जाता है, वह तत्काल रूपांतरित हो जाता है। कुछ हूं। एक मित्र मेरे पास आए थे, वे कह रहे थे कि दूसरी शादी करने जिन लोगों के भीतर बहुत हीनता की ग्रंथि है, वे किसी बड़े पद का विचार कर रहा है। मैंने उनसे कहा कि जहां तक मझे याद आती पर खडे होकर दनिया को दिखाना चाहते हैं. हम कछ हैं. समबडी। है, तुम छः महीने पहले भी आए थे, जब तुम्हारी पत्नी जिंदा थी, तब | लेकिन उससे कोई अंतर नहीं पड़ता। हीनता की ग्रंथि भीतर रहती तुम तलाक देने का सोचते थे। उन्होंने कहा, हां, इस स्त्री को तो है, सोना ऊपर सज जाता है; पद ऊपर हो जाते हैं; रेशम लग जाता तलाक देने की सोचता था, ऊब गया था। और मैंने कहा, जहां तक है; मखमल लग जाती है; गोटा-सितारा लग जाता है। वह भीतर मुझे याद है, तुमने कहा था कि अगर मेरा किसी तरह इस स्त्री से | जो हीन आदमी था, हीन का हीन बना रह जाता है। तलाक हो जाए, तो मैं संन्यास ही ले लूं। लेकिन अब यह स्त्री अपने | लेकिन कितने ही अनुभव के बाद भी हमारे हाथ अनुभव की आप विदा हो गई। अब तुम दूसरी शादी की क्यों सोच रहे हो? संपदा नहीं लगती। क्योंकि अनुभव की संपदा लग जाए, तो वह तो मैंने उन्हें कहा कि किसी मनोवैज्ञानिक से भी कोई यही पूछ | जो सम्मोहन है प्रकृति का, वह तत्काल टूट जाता है। और प्रकृति रहा था, तो उसे मनोवैज्ञानिक ने कहा कि इससे मालूम पड़ता है, | का सम्मोहन टूटा कि आपकी आंखें उस तरफ उठती हैं, जिस ओर यह अनुभव के ऊपर आशा की विजय है। अनुभव के ऊपर आशा | प्रभु है। की विजय! सम्मोहन से बंधे रहना मूढ़ता है। प्रभु की ओर आंखों का उठ अनुभव तो यही है। वह आदमी कह रहा है कि अब मैं बचना | जाना, उसका भजन शुरू हो जाए, उसका नर्तन शुरू हो जाए, चाहता हूं किसी तरह उस कलह से, जिसका नाम शादी था; उस | उसका कीर्तन भीतर जग उठे, जीवन एक नृत्य बन जाए-प्रभु को उपद्रव से। लेकिन फिर करने का मन हो रहा है। अनुभव के ऊपर समर्पित, उसके चरणों में झुका हुआ तो परम आनंद की आशा जीत रही है फिर। इस आशा में कि शायद दबारा वैसा न हो। उपलब्धि होती है। लेकिन वह सम्मोहन टटे. तभी संभव है इसी आशा में हम हजारों जन्म गंवा देते हैं। फिर खोजेंगे धन; शायद इस बार धन मिल जाए। फिर खोजेंगे पद; शायद इस बार पद मिल जाए। फिर खोजेंगे मकान; शायद इस बार मकान मिल तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिविशिष्यते। जाए। लेकिन कभी मकान नहीं मिलता, मौत मिलती है, कब्र प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः । । १७ ।। मिलती है। और कभी धन नहीं मिलता; ढेर जरूर लग जाता है धन | उनमें भी नित्य मेरे में एकीभाव से स्थिति हुआ अनन्य प्रेम का; भीतर आदमी निर्धन का निर्धन रह जाता है। कभी पद नहीं | भक्ति वाला ज्ञानी अति उत्तम है, क्योंकि मेरे को तत्व से मिलता; सब पद मिल जाते हैं; भीतर की हीनता उतनी की उतनी | जानने वाले ज्ञानी को मैं अत्यंत प्रिय हूं और वह ज्ञानी मेरे रह जाती है; उसमें कहीं कोई अंतर नहीं पड़ता। को अत्यंत प्रिय है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि राजनीतिज्ञ जितने ज्यादा इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स से, हीनता की ग्रंथि से पीड़ित होते हैं, इतना कोई भी पीड़ित नहीं होता है। सच तो यह है कि हीनता की 7 की रूप से, अनन्य भाव से, तत्व को समझकर, मुझे ग्रंथि से पीड़ित होते हैं, इसीलिए पदों की तलाश पर निकलते हैं। ५ जो प्रेम करता है, वह ज्ञानी उत्तम है। लेनिन के पैर, कुर्सी पर बैठता था, साधारण कुर्सी पर, तो जमीन दो बातें। एकीभाव से; जरा भी फासला नहीं रखता जो तक नहीं पहुंचते थे। ऊपर का हिस्सा बड़ा था, नीचे का हिस्सा | | मेरे और अपने बीच; किंचित मात्र भेद नहीं मानता जो अपने और छोटा था। मनोवैज्ञानिक कहते हैं विशेषकर एडलर–कि लेनिन । | मेरे बीच। यह बड़ी कठिन बात है। इसे थोड़ा समझना होगा। | 402

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