________________
< गीता दर्शन भाग-3 -
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।
युक्त पुरुष इससे विपरीत होता है। युक्त पुरुष का अर्थ है, वह आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ।। १८।। | जो भीतर एक ही है। कहीं से चखो उसे, स्वाद उसका एक। कहीं
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते । | से बजाओ उसे, आवाज उसकी एक। कहीं से खोजो उसे, वही वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः । । १९ ।।। मिलेगा। किसी द्वार से, किसी दरवाजे से, किसी स्थिति में, वही यद्यपि ये सब ही उदार हैं अर्थात श्रद्धासहित मेरे भजन के मिलेगा। लिए समय लगाने वाले होने से उत्तम है, परंतु ज्ञानी तो यहां जरा-सी धूप बदल जाती है और छाया हो जाती है, तो हम साक्षात मेरा स्वरूप ही है, ऐसा मेरा मत है, क्योंकि वह | बदल जाते हैं। यहां जरा-सा अंतर पड़ता है परिस्थिति में, और स्थिर बुद्धि ज्ञानी भक्त अति उत्तम गति-स्वरूप मेरे में ही हमारे भीतर का आदमी दूसरा हो जाता है। खीसे में पैसे हों थोड़े,
अच्छी प्रकार स्थित है। और जो बहुत जन्मों के अंत के | तो हृदय की धड़कन और कुछ होती है। खीसे में पैसे थोड़े कम हो जन्म में तत्वज्ञान को प्राप्त हुआ ज्ञानी, सब कुछ वासुदेव ही | | जाएं, हृदय की धड़कन और कुछ हो जाती है। हम हैं, ऐसा कहना है, इस प्रकार मेरे को भजता है, वह महात्मा अति दुर्लभ है। ही शायद ठीक नहीं है।
गुरजिएफ के पास कोई जाता था और कहता था कि मुझे आत्मा
को खोजना है, तो गुरजिएफ पूछता था, आत्मा तुम्हारे पास है? 17 भुको जो जानता है, वह उस जानने में ही उसके साथ | बड़ा अजीब सवाल पूछता था। पूछता था, डू यू एक्झिस्ट-तुम प्र एक हो जाता है। सब दूरी अज्ञान की दूरी है। सब हो भी? कोई भी कहेगा कि मैं हूं, नहीं तो आता कौन! गुरजिएफ
____ फासले अज्ञान के फासले हैं। परमात्मा को दूर से कहता, जो घर से निकला था, वही पहुंचा है मेरे पास कि रास्ते में जानने का कोई भी उपाय नहीं है, परमात्मा होकर ही जाना जा | बदल गया? सकता है।
अनेकों को उसकी बात समझ में न आती थी। जो भी बात इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो मुझे जान लेता है, वह ज्ञानी, समझने योग्य है, वह बहुत कम लोगों की समझ में आती है। जो वासुदेव ही हो गया, वह भगवान ही हो गया, वह कृष्ण ही हो गया, नहीं समझने योग्य है, वह सबकी समझ में आ जाती है। सिर्फ वह मैं ही हो गया।
नासमझी ही सबकी समझ में आती है। लेकिन कैसा ज्ञानी कृष्ण को जानता है? दो बातें कही हैं। कहा तो गुरजिएफ कहता था, पहले तुम सोचकर खोजकर आओ कि है, युक्त आत्मा, जिसकी आत्मा युक्त हो गई, इंटिग्रेटेड हो गई। तुम हो भी! अन्यथा मैं मेहनत करूं और तुम बदल जाओ! ऐसे
हम सबकी आत्मा खंड-खंड है, अयुक्त है, टुकड़े-टुकड़े है। | कैनवास पर चित्र बनाने का तो कोई मतलब नहीं है, कि हम चित्र हम एक आदमी नहीं हैं; बहुत आदमी हैं एक साथ। नाम हमारा बना न पाएं और कैनवास बदल जाए। ऐसे पत्थर में तो मूर्ति तोड़ने एक है, इससे भ्रम पैदा होता है। एक नाम के लेबिल के पीछे बहुत | का कोई प्रयोजन नहीं है, कि हम पत्थर में मूर्ति तोड़ भी न पाएं कि निवासी हैं। क्षण-क्षण में हमारे भीतर बदलते रहते हैं लोग। हम | पत्थर बदल जाए। एक भीड़ हैं, एक समूह–प्रत्येक आदमी—क्योंकि बहुत खंड हैं | आदमी के साथ करीब-करीब मेहनत ऐसी ही खराब होती है। हमारे। खंड ही हैं, ऐसा नहीं, विपरीत खंड भी हमारे भीतर हैं। जो जो आदमी के साथ मेहनत करते हैं, वे जानते हैं कि किस बुरी तरह हम एक हाथ से करते हैं, उसे ही दूसरे हाथ से मिटा देते हैं। । खराब होती है। सुबह जिसके साथ मेहनत की थी, वह सांझ मिलता
एक क्षण हम प्रेम से भर जाते हैं, दूसरे क्षण घृणा से भर जाते | नहीं खोजे से कि कहां गया। चेहरे हैं। हैं। वह जो प्रेम में मंदिर बनाया था, घृणा में मिट्टी में मिल जाता है। लेकिन एक मजे की बात है कि हमारे पास एक चेहरा हो, तो एक क्षण क्रोध में जलते हैं, और फिर क्षमा से भर जाते हैं। वह जो | भी ठीक। झूठा ही सही; एक हो, तो भी ठीक। झूठे चेहरे हैं, वे भी आग जलाई थी अपने ही प्राणों की, उसे अपने ही प्राणों के पानी से | बहुत हैं। और कितनी कुशलता से हम उन्हें बदलते हैं कि हमें कभी बुझाते हैं। क्षण-क्षण हमारे भीतर बदलता रहता है सब कुछ। हम | पता नहीं चलता कि हमने चेहरा बदल लिया। क्षणभर में बदल एक प्रवाह हैं।
जाता है।
1410