Book Title: Gita Darshan Part 03
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 411
________________ प्रकृति और परमात्मा > का मौका न मिले, तो आप जानते हैं, समाज-सुधारकों की कैसी हालत हो जाए! बड़ी मुश्किल में पड़ जाएं, बड़ी बेचैनी में। वह बेचैनी ठीक वैसी ही होगी, जैसे अचानक धंधा डूब जाए; ग्राहक न आएं; फैशन बदल जाए; आपकी दुकान की चीजें बिकनी बंद । वह पीड़ा उतनी ही होगी। सत्व भी, अच्छा काम भी बिना परमात्मा को समर्पित हुए सिर्फ एक मोह है, और उससे भी अहंकार ही निर्मित होता है। इसलिए जिनको हम सात्विक लोग कहते हैं, वे भी अपने ढंग से अपनी अस्मिता को मजबूत करने में लगे रहते हैं। के परमात्मा के अतिरिक्त — वह जो पार है, वह जो परा है प्रकृति ऊपर, उसके अतिरिक्त - सभी सम्मोहन है। सभी मोह के आधार बन जाते हैं; सभी मन को पकड़ लेते हैं, और सभी मन को मूर्च्छित कर देते हैं। कृष्ण को यह कहने की जरूरत क्या है अर्जुन से ? अर्जुन सत्व से मोहित हो रहा है, इसलिए कहने की जरूरत है। बुद्ध के पास एक आदमी आया है एक सुबह और बुद्ध के चरणों में सिर रखकर उसने कहा, मुझे कुछ बताएं कि मैं दुनिया का कल्याण कर सकूं। बुद्ध ने उसकी तरफ नीचे देखा और कहा तू अपना ही कर ले, तो काफी है। तू दुनिया को क्यों मुसीबत में | डालना चाहता है! तू अपना ही कर ले तो काफी है। तेरा कल्याण हो चुका ? उसने कहा कि मैं कोई स्वार्थी आदमी नहीं हूं। मुझे मेरी फिक्र ही नहीं है, मुझे तो दुनिया की फिक्र है। बुद्ध ने कहा, जिसका खुद का दीया बुझा हो, वह किसके दीए जला सकेगा ! 'मगर वह आदमी कह रहा है, मैं स्वार्थी नहीं हूं, मुझे दुनिया की फिक्र है। लेकिन यह आदमी अगर कल्याण करने जाए, तो किसी के जले दीए और बुझा देगा। इससे कल्याण हो नहीं सकता। परमात्मा के सिवाय कल्याण हो नहीं सकता। आदमी कैसे कल्याण करेगा? आदमी होना ही एक बीमारी है, एक डिसीज । और वह कहता है कि नहीं, मेरी उत्सुकता मुझमें, अपने आपमें नहीं है। मेरी उत्सुकता तो यह है कि दूसरों का भला कैसे हो ! बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को कहा कि देखो, यह एक पवित्र अहंकारी है। इसको यह भी अहंकार है कि यह स्वार्थी नहीं है। तो बुद्ध ने कहा, पहले तू अपना स्वार्थ तो साध ले । तू पहले स्वयं को तो जान ले। उसने कहा कि इन सब बातों में मुझे मत डालें। दुनिया में बड़ी तकलीफ चल रही है और मुझे सब बदलना है और सब ठीक कर देना है। ये ठीक करने वाले हजारों साल से ठीक कर रहे हैं, दुनिया की तकलीफ बढ़ती जाती है, कम नहीं होती। अब तो ऐसा लगने लगा है कि किसी तरह समाज का समाज-सुधारकों से छुटकारा हो जाए, तो थोड़ी राहत मिले। असल में दूसरे को बदलने और ठीक करने का भी एक रस है । और सारी दुनिया को ठीक कर देने में भी एक बड़ी मौज है, बड़ा रस है । और हरेक इस खयाल से जीता है कि मैं सारी दुनिया को | ठीक कर दूंगा। | खुद को ठीक करना बहुत मुश्किल पाकर लोग दुनिया को ठीक करने निकल जाते हैं! खुद से बचने के लिए लोग हजार उपाय खोज लेते हैं। खुद की बीमारियां दिखाई न पड़ें, खुद की परेशानियां दिखाई न पड़ें, खुद की परेशानियों से पलायन हो जाए, तो दूसरे की परेशानियों में लग जाते हैं । भुलाने की तरकीबें हैं; लेकिन सात्विक हैं बातें, इसलिए मजा भी है। 385 चोर को तो आप कह भी दें कि तू बुरा काम कर रहा है, नष्ट कर रहा है अपने को । साधु को कैसे कहिएगा? वह तो सेवा कर रहा है। वह तो कोई बुरा काम कर नहीं रहा है। वह तो स्कूल खोल रहा है; धर्मशाला बना रहा है; अस्पताल बना रहा है। कोई बुरा काम नहीं कर रहा है। कोढ़ियों की मालिश कर रहा है; कोई बुरा काम नहीं कर रहा है। लेकिन कृष्ण कहते हैं, सत्व, रज, तम, तीनों चाहे कोई ऐसा कृत्य, जो बुरा हो; और चाहे कोई ऐसा कृत्य, जो भला हो; और भले |और बुरे की तरफ दौड़ने की जो प्रवृत्ति है, वे तीनों ही प्रकृति हैं। और अर्जुन, तू ठीक से समझ ले कि जब तक इन तीन से कोई मोहित | हुआ जी रहा है, तब तक वह मुझ पार को, वह जो अतीत है, वह जो अतिक्रमण कर जाता है, उसको उपलब्ध नहीं हो सकेगा। इसका अर्थ ? इसकी निष्पत्ति ? इसकी निष्पत्ति यह हुई कि परमात्मा को पाने के लिए बुरे के तो ऊपर उठना ही पड़ता है, भले के भी ऊपर उठ जाना पड़ता है। परमात्मा को पाने के लिए असदवृत्तियों को तो छोड़ ही देना पड़ता है, सदवृत्तियों को भी छोड़ देना पड़ता है। असल में उस परम स्वतंत्रता के लिए लोहे की जंजीरें तो तोड़नी ही पड़ती हैं, सोने की जंजीरें भी तोड़ देनी पड़ती हैं। और ध्यान रहे, लोहे की जंजीरों से अक्सर ही सोने की जंजीरें | ज्यादा जंजीरें सिद्ध होती हैं। क्योंकि लोहे की जंजीर को तो तोड़ने का मन भी होता है; सोने की जंजीर को बचाने का भी मन होता है।

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