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7 गीता दर्शन भाग - 3 >
कोई सहयोग देगा। लेकिन प्रतिष्ठा भी खो जाए, तो डर लगता है कि कल इस बड़े जगत में कोई साथी-संगी न होगा, तो क्या होगा ? जहां भी भय है, वहां थोड़ी-सी भी खोज करेंगे, थोड़ा-सा खोजेंगे, तो स्किन डीप कुछ और कारण भला हो, लेकिन जरा-सी खरोंच के बाद गहरे में मृत्यु खड़ी हुई दिखाई पड़ेगी। मृत्यु ही भय है | और सब भय उसके ही हलके डोज हैं। उसकी ही हलकी मात्राएं हैं। मृत्यु का भय एकमात्र भय है।
कृष्ण कहते हैं कि अभय को उपलब्ध हो कोई, भयरहित हो कोई, तो ही ध्यान में गति है, तो ही समाधि में चरण पड़ेंगे। तो क्या बात है ? यहां समाधि और ध्यान में भय को लाने की क्या जरूरत ? यहां मौत का सवाल कहां है?
यहां है। मौत का सवाल है, महामृत्यु का सवाल है। क्योंकि साधारण मृत्यु में तो सिर्फ शरीर मिटता है, आप नहीं मिटतें । सिर्फ वस्त्र बदलते हैं, आप नहीं बदलते। आप तो फिर, पुनः, पुनः-पुनः नए शरीर, नए वस्त्र धारण करते चले जाते हैं।
तो साधारण मृत्यु, जो जानते हैं, उनकी दृष्टि में मृत्यु नहीं, केवल शरीर का परिवर्तन है। गृह परिवर्तन है, नए घर में प्रवेश है, पुराने घर का त्याग है। लेकिन ध्यान में महामृत्यु घटित होती है। आप भी मरते हैं, शरीर ही नहीं मरता। आप भी मरते हैं, मैं भी मरता है । वह अहंकार और ईगो भी मरती है, मन मरता है।
स्वभावतः, जब शरीर के ही मरने में इतना भय लगता है, तो मन के मरने में कितना भय न लगता होगा ! और इसलिए अभय हुए बिना कोई ध्यान में प्रवेश न कर सकेगा।
जैसा कृष्ण ने कहा भयरहित, ऐसा ही महावीर ने अभय को पहला सूत्र कहा है। अभय हुए बिना कोई ध्यान में न जा सकेगा। क्योंकि थोड़ी ही देर, थोड़ी ही भीतर गति होगी और पता चलेगा, यह तो मृत्यु घटने लगी।
ध्यान के अनुभव में मृत्यु का अनुभव आता ही है, अनिवार्य है। उससे कोई बचकर नहीं निकल सकता। जब आप ध्यान में गहरे उतरेंगे, तो वह घड़ी आ जाएगी जहां लगेगा, कहीं ऐसा तो न होगा कि मैं मर जाऊं। लौट चलूं वापस, यह किस उपद्रव में पड़ गया ! वापस लौटो।
ध्यान से न मालूम कितने लोग वापस लौट आते हैं। सिर्फ भीतर वह जो मृत्यु का भय पकड़ता है, उसकी वजह से वापस लौट आते हैं । और मजा यह है कि वही क्षण है पार होने का । उसी क्षण में अगर आप निर्भय प्रवेश कर गए, तो आप समाधि में पहुंच जाएंगे।
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और अगर उससे आप वापस लौट आए, तो जहां आप थे, वहीं आ जाएंगे। और एक खतरा और ले आएंगे। वह यह कि अब ध्यान में जाने की हिम्मत भी न कर सकेंगे, क्योंकि वह मृत्यु का डर अब |और गहरा और साफ हो जाएगा।
जब ध्यान में मृत्यु की प्रतीति होती है, तब आप अमृत के द्वार पर खड़े हैं। अगर भयभीत हो गए, तो द्वार से वापस लौट आए। और अगर प्रवेश कर गए, तो अमृत में प्रवेश कर गए। फिर कोई मृत्यु नहीं है।
मृत्यु में प्रवेश करके ही अमृत का अनुभव होता है। मिटकर ही जानना पड़ता है उसे, जो है । स्वयं को खोकर ही पाना पड़ता है उसे,
सर्व
इसलिए ठीक है कृष्ण अगर कहें कि भयरहित चित्त से ही प्रवेश संभव है।
इधर मेरा रोज का अनुभव है। सैकड़ों व्यक्ति कितनी आतुरता और कितनी प्यास से ध्यान में प्रवेश करते हैं, लेकिन शीघ्र ही...।
ज्यादा श्रम नहीं करते, उनको तो अड़चन नहीं आती, क्योंकि वे उस बिंदु तक भी नहीं पहुंचते, जहां मृत्यु का अनुभव हो। लेकिन जो जरा ज्यादा श्रम करते हैं, वे उस बिंदु पर पहुंच जाते हैं, जहां मृत्यु दिखाई पड़ने लगती है कि मैं मरा, मैं गया। अब अगर एक कदम आगे बढ़ता हूं भीतर, तो अब मैं नहीं बचूंगा। सब टूट-फूटकर बिखर जाएगा। फिर लौट नहीं सकूंगा। यह प्रतीति इतनी प्रगाढ़ होती है, यह पूरे प्राणों को इस भांति पकड़ लेती है कि साधक भागकर बाहर आ जाता है। यह रोज घटता है।
इसलिए ध्यान में जाने वाले साधक को, जो उसे ध्यान में जाने का मार्ग-निर्देश कर रहा है, उचित है कि कहता रहे कि भय को छोड़ देना; मृत्यु घटित होगी। वह क्षण आएगा, जब भय पकड़ेगा। वह क्षण आएगा, जब सब भीतर ऐसा लगेगा कि खो गया; सब खो रहा है। डूब रहा हूं सागर में, अतल गहराई में; लौटने का अब शायद कोई उपाय न होगा।
वह क्षण आएगा ही। यह अगर पूर्व-सूचना दे दी गई हो, तो साधक जब पहुंचता है उस क्षण में, तो निर्भय हो, साहस बांध, छलांग लगा पता है । अगर यह पूर्व सूचना न दी गई हो, तो बहुत संभावना यही है कि साधक वापस लौट आए, घबड़ा जाए।
लौट आए साधक को बड़ी तकलीफ हो जाती है। तकलीफ तो यह हो जाती है बड़ी कि अब वह ध्यान की तरफ जाने की हिम्मत अब न जुटा पाएगा। अब यह स्मरण उसका सदा पीछा करेगा। अब