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< चित्त वृत्ति निरोध -
वृत्ति निरोध का अर्थ है, वृत्ति की इतनी गहरी समझ कि वृत्ति का जल, एक बर्तन में, एक कटोरे में शुद्ध जल रखा हो, नीलमणि को होना असंभव हो जाए। इतनी गहरी अंडरस्टैंडिंग, इतना गहरा उस जल में डाल दें, तो पूरा जल नीला मालूम होने लगता है। वह अनुभव, ऐसी गहरी अनुभूति कि वृत्ति असंभव हो जाए। और ज्ञान जो नीलमणि की आभा है, वह पूरे जल को घेर लेती है। के अतिरिक्त और कोई मुक्ति नहीं है। और ज्ञान के अतिरिक्त और अगर नीलमणि को होश आ जाए, तो नीलमणि क्या कहेगी कि कोई निरोध नहीं है।
| मैं मणि हूं, जल से अलग? नहीं। क्योंकि जल भी तो नीला हो गया ___ इसलिए कृष्ण कहते हैं, उपराम, शांत हुआ चित्त, चित्त वृत्ति है। नीलमणि कैसे जान पाएगी कि कहां मणि समाप्त होती है और निरोध को उपलब्ध हुआ चित्त, उस निरोध के क्षण में प्रभु को | | कहां जल शुरू होता है! क्योंकि जल ने भी नीलापन ले लिया है। जानता है।
अगर नीलमणि को होश आ जाए, तो नीलमणि जल की परिधि को ही अपनी परिधि मानेगी, क्योंकि वहां तक नील का विस्तार है।
ठीक ऐसे ही, वह जो भीतर शुद्ध आत्मा है, वह जो चेतना है, सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् । उसकी आभा इंद्रियों को घेर लेती है; शरीर के कोने-कोने में व्याप्त वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ।। २१ । । हो जाती है। मेरी आत्मा मेरी अंगलियों के पोरों तक समा गई है। तथा इंद्रियों से अतीत केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण | मेरी आत्मा मेरे रोएं-रोएं के कोने-कोने तक प्रवेश कर गई है। मेरी करने योग्य जो अनंत आनंद है. उसको जिस अवस्था में आत्मा ने मेरी पूरी इंद्रियों को, मेरे पूरे शरीर को आवृत कर लिया अनुभव करता है और जिस अवस्था में स्थित हुआ यह | है। मेरी चेतना की आभा में सब समा गया है। और यह आभा योगी भगवत्स्वरूप से नहीं चलायमान होता है। अनंत है। इसलिए चींटी के छोटे-से शरीर को भी घेर लेती है, हाथी
के बड़े शरीर को भी घेर लेती है। अगर मैं पूरे ब्रह्मांड जैसा शरीर
भी पा जाऊं, तो भी मेरी आभा इतने को घेर लेगी। यह आत्मा की 5 सी सूत्र का और भी गहरा रूप। भगवत्स्वरूप से नहीं आभा अनंत है। और यह आभा जहां पड़ती है. जिस सीमा को . चलायमान होता है। वह चित्त, वह व्यक्ति, वह योगी, घेरती है, उस सीमा के साथ लगता है कि मैं एक हो गया।
जो इंद्रियों के पार हूं मैं, ऐसा जानता है, भगवत्स्वरूप | इसलिए पहला कदम उठ जाता है कि मैं इंद्रियां हूं, फिर दूसरा से चलायमान नहीं होता है।
कदम उठना अनिवार्य हो जाता है। क्योंकि इंद्रियां कहती हैं, ___ भगवत्स्वरूप से चलायमान हम होते इसीलिए हैं कि मानते हैं | कामेंद्रिय कहती है कि काम-विषय खोजो। तो फिर काम-विषय कि इंद्रियां हूं मैं। इंद्रियां हूं मैं, तो यात्रा शुरू हो गई। हमने स्वयं से | की खोज में जाना पड़ता है। ऐसे हम अपने से बाहर जाते हैं, या दूर जाना शुरू कर दिया। और फिर इंद्रियां और दूर ले जाएंगी, | चलायमान होते हैं, गतिमान होते हैं। ऐसे हमारे भीतर वह जो क्योंकि प्रत्येक इंद्रिय कहेगी कि मुझे मेरा विषय चाहिए। तो उसकी अचलायमान है सदा, वह चलायमान होने की भ्रांति में पड़ता है। विषय की खोज होगी। और प्रत्येक विषय के बाद अनुभव होगा फिर वह खोजता निकलता चला जाता है-दूर, और दूर, और दूर। कि इससे तृप्ति नहीं होती, दूसरा विषय चाहिए, तो दूसरे की खोज और जितना खोजता है, उतना ही पाता है, नहीं मिलता, तो और दूर होगी। और फिर जीवन एक यात्रा बन जाएगा।
जाता है! ऐसे जन्मों की लंबी यात्रा होती है। ___ यात्रा के दो चरण हैं। पहला चरण, मैं इंद्रियां हूं, ऐसा तादात्म्य कृष्ण कह रहे हैं, जिसने जाना कि मैं इंद्रियों के अतीत और पार बनाना जरूरी है। अगर संसार में जाना है, तो जानना जरूरी है कि हं. फिर चलायमान नहीं होता भगवत्स्वरूप से, फिर भगवान से मैं इंद्रियां हूं। और यह तादात्म्य बन जाता है। यह बन जाता है इसी चलायमान नहीं होता। फिर वह भगवान में एक हो जाता है, फिर तरह कि चेतना इतनी निर्मल और इतनी शुद्ध है कि जिस चीज के | वह भगवान ही हो जाता है। लेकिन सूत्र है, इंद्रियों के पार हूं मैं, भी पास जाती है, उसका प्रतिबिंब पकड़ लेती है।
इसे जानना; ट्रांसेंडेंटल हूं, अतीत हूं, इंद्रियां नहीं हूं मैं, इसे जानना। पुराने योग के ग्रंथ उदाहरण देते हैं नीलमणि का। प्रीतिकर है| एक बहुत अजीब-सी घटना मुझे याद आती है। एक फकीर उदाहरण। पुराने योग के ग्रंथ कहते हैं कि नीलमणि को अगर शुद्ध हुआ है, लिंची, जापान में एक बहुत ज्ञानी फकीर हुआ। लिंची की