Book Title: Gita Darshan Part 03
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 255
________________ सर्व भूतों में प्रभु का स्मरण > शिष्य हैं। आप हमारे पैर धोते हैं! तो जीसस ने कहा कि मैं प्रभु का जब भी हम दूसरे के संबंध में कोई निर्णय लें, तब सदा अपने स्मरण करता हूं। सादृश्य से लें। हम इससे उलटा ही करते हैं। जब भी हम दूसरे के और जब दूसरे दिन लोगों को पता चला कि यहूदा ने ही उनको संबंध में कोई निर्णय लेते हैं, तो कभी अपने सादृश्य से नहीं लेते। पकड़वाया है, तो बहुत हैरान हुए। अब तक वह बात गुत्थी की तरह | अगर दूसरा बुराई करता है, बुरा काम करता है, तो हम कहते हैं, उलझी रह गई कि यहूदा के पैर धोना जीसस ने क्यों किया होगा? | | वह बुरा आदमी है। और अगर हम बुराई करते हैं, तो हम कहते हैं, कृष्ण के इस सूत्र में व्याख्या है। ईश्वर को भजने का यह अवसर | | वह मजबूरी है। अगर दूसरा आदमी चोरी करता है, तो वह चोर है। छोड़ना उचित न था। जो आदमी फांसी पर लटकवाने ले जा रहा | | और अगर हम चोरी करते हैं, तो वह आपदधर्म है! लेकिन कभी है, उस आदमी में भी परमात्मा को देखने की आखिरी कोशिश अपने सादृश्य से नहीं सोचते। अगर हम क्रोध करते हैं, तो वह दूसरे जीसस ने की। के सुधार के लिए है। और अगर दूसरा क्रोध करता है, तो वह हिंसक प्रभु को इस अर्थ में जो भजना शुरू कर दे, उसे फिर किसी और है। अगर हम किसी को मारते के लिए। भजन की कोई भी जरूरत नहीं है। प्रभु को जो इस रूप में देखना | और अगर दूसरा जिलाता भी है, तो मारने के लिए। शुरू कर दे, उसे फिर किसी मंदिर और तीर्थ की जरूरत नहीं है। प्रभु । दूसरे को हम कभी भी उस भांति नहीं सोचते, जैसा हम स्वयं को जो इस रूप में सोचना, समझना और जीना शुरू कर दे, उसके को सोचते हैं। स्वयं में जो श्रेष्ठतम है, उसे हम स्वभाव मानते हैं; लिए पूरी पृथ्वी मंदिर हो गई, उसके लिए सब रूप प्रतिमाएं हो गए और दूसरे में जो निकृष्टतम है, उसे उसका स्वभाव मानते हैं! प्रभु के, उसके लिए सब आकार निराकार का निवास हो गए। ध्यान रहे, स्वयं का जो शिखर है, वह हमारा स्वभाव है; और कृष्ण से अर्जुन को मिला यह सूत्र बहुत कीमती है कि जो सब दूसरे की जो खाई है, वह उसका स्वभाव है। उसका भी शिखर है, भूतों में मुझ वासुदेव को, मुझ परमात्मा को, परमात्मा को, प्रभु को और हमारी भी खाई है। देखना शुरू कर देता है, भजना शुरू कर देता है, वह योगी परम सादृश्य का अर्थ यह है कि जब मैं दूसरे की खाई के संबंध में सिद्धि को उपलब्ध होता है। सोचूं, तो पहले अपनी खाई को देख लूं। तो मैं पाऊंगा कि शायद | मुझसे बड़ी खाई किसी दूसरे की नहीं है। जब मैं अपने शिखर के | संबंध में सोचूं, तो मैं दूसरों के शिखर भी सोच लूं, तो शायद मैं आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । पाऊंगा कि मुझसे छोटा शिखर किसी का भी नहीं है। सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ।। ३२ ।। लेकिन हमारे सोचने की विधि, पद्धति यह है कि दूसरे का जो और हे अर्जुन, जो योगी अपनी सादृश्यता से संपूर्ण भूतों में बुरा है, निकृष्टतम है, वही उसका सार तत्व है; और हमारा जो सम देखता है और सुख अथवा दुख को भी सब में सम | श्रेष्ठतम है, वह हमारा सार तत्व है। इसलिए हमसे निरंतर अन्याय देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है। हुआ चला जाता है। समता होगी कैसे? ___ ध्यान रहे, एक समता तो यह है कि मैं दो आदमियों को समान समझ. अऔर ब समान हैं। यह समता बहत गहरी नहीं है। असली म. मत्व योग है। समता का बोध श्रेष्ठतम योग है। सुख समता यह है कि मैं, मैं और तू को समान समझू, जो बहुत गहरी रा में, दुख में, अनुकूल में, प्रतिकूल में, सब स्थितियों है। दो आदमियों को समान समझने में बहुत कठिनाई नहीं है, में, सब परिस्थितियों में जो सम बना रहता है, समता क्योंकि दो आदमियों को समान समझने में ही मैं ऊपर उठ जाता हूं। को देखता है—एक। इस संबंध में काफी बात कृष्ण ने कही है। मैं पैट्रोनाइजिंग हो जाता हूं। मैं दो को समान समझने वाला। मैं इसमें एक दूसरी छोटी-सी बात वे कह रहे हैं, जो कीमती है। वह ऊपर उठ जाता हूं। मैं करीब-करीब मजिस्ट्रेट की कुर्सी पर बैठ है, जो अपने सादृश्य से सब में ही सम स्थिति देखता है। इसे थोड़ा जाता हूं। दो को समान समझने में बहुत कठिनाई नहीं है। दूसरे के समझना जरूरी है। साथ स्वयं को समान समझने में सबसे बड़ी कठिनाई है। अपने सादृश्य से! कठिनतम बात है यह। इसका अर्थ यह है कि सुना है मैंने, सोरोकिन ने कहीं एक छोटा-सा मजाक लिखा है। 229

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