Book Title: Gita Darshan Part 03
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 348
________________ गीता दर्शन भाग-3 कहेगा, मेरी आंख में कोई खराबी है, सूरज तो निकला ही होगा। अगर निष्ठावान व्यक्ति घर वापस पहुंचे और पाए कि उसका घर वहां से हट गया है, तो निष्ठावान व्यक्ति कहेगा, घर तो वहीं होगा, मैं भटक गया हूं। फर्क यह है, संशय वाला व्यक्ति हमेशा संशय बाहर आरोपित करेगा और निःसंशय व्यक्ति संशय को सदा अपने पर आरोपित करेगा। संशयवान व्यक्ति सदा भूल कहीं और खोजेगा; निःसंशय व्यक्ति सदा भूल अपने में खोजेगा। निष्ठावान, संशयहीन निष्ठावान व्यक्ति अपने अतिरिक्त जगत में कहीं भूल नहीं देखेगा। अगर भूल होगी कहीं, तो मुझमें होगी; और कहीं नहीं। जीवन में जो भी घटेगा, चाहे सुख, चाहे दुख, उससे उसकी निष्ठा में कोई डांवाडोल स्थिति, कोई कंपन पैदा नहीं होगा। अगर जीवन पूरा दुख भी बन जाए, तो भी वैसा व्यक्ति जानेगा कि कहीं उसकी ही भूल है; परमात्मा की कृपा में कोई अंतर नहीं है। कहीं मैं ही चूक रहा हूं; उसका प्रसाद तो बरस रहा है। कहीं मेरा ही बर्तन उलटा रखा होगा; उसकी वर्षा तो जारी है। संशयवान व्यक्ति का बर्तन भी उलटा रखा हो, भी हो रही हो, तो भी वह यही कहेगा कि मुझमें पानी नहीं भर रहा है, इससे साफ जाहिर है कि वर्षा नहीं हो रही । इस भेद को ठीक से समझ लेना, क्योंकि यह भेद धर्म में प्रवेश में अंतर लाएगा। क्योंकि धर्म का मौलिक आधार व्यक्ति का रूपांतरण है। विज्ञान का मौलिक आधार वस्तु का रूपांतरण है। विज्ञान की खोज वस्तु की खोज है, धर्म की खोज व्यक्ति की खोज है । इसलिए उचित है कि विज्ञान वस्तु के भीतर भूल-चूक देखे और उचित है कि धर्म व्यक्ति के भीतर भूल-चूक देखे । अगर आपका डाउट अदर ओरिएंटेड है, दूसरे पर ठहरा हुआ है, तो आपका चित्त वस्तु के संबंध में बहुत-सी बातें खोज लेगा, लेकिन स्वयं के संबंध में कुछ भी न खोज पाएगा। इसलिए धर्म और विज्ञान के आयाम, डायमेंशन अलग हैं। कृष्ण कहते हैं, जो निःसंशय होकर मुझमें निष्ठा रखता है! बड़ी कठिन है यह बात । निःसंशय होकर निष्ठा कैसे रखी जा सकती है! अगर निःसंशय होकर हम निष्ठा रखेंगे - यह संभव ही कहां मालूम पड़ता है ! आज किसी भी व्यक्ति से कृष्ण यह कहेंगे, तो वह कहेंगे कि आप असंभव की आकांक्षा करते हैं। यह नहीं हो सकेगा। मैं कैसे सब छोड़ दूं? लेकिन जब कृष्ण ने अर्जुन से यह कहा था, तो अर्जुन ने ऐसा सवाल नहीं उठाया। यह थोड़ा विचारणीय है। अर्जुन उस जमाने के सुशिक्षिततम लोगों में से एक था। सभ्यतम, कुलीनतम, उस समाज में जो श्रेष्ठतम जन थे, उन श्रेष्ठियों में, उन आर्यों में एक | था । कृष्ण ने बहुत बार यह कहा है कि तू सब शंकाएं छोड़कर मुझ पर निष्ठा कर ले | अर्जुन जरूर यह कहता है कि मन बड़ा चंचल है, मन ठहरता नहीं। लेकिन कहीं भी अर्जुन यह नहीं कहता – यह बड़ी आश्चर्य की बात है - कि मैं कैसे आप पर निष्ठा कर लूं? निष्ठा कैसे संभव है? अर्जुन यह जरूर कहता है कि मेरी कमजोरियां हैं। आप जो कहते हैं, ठीक कहते हैं; ठीक ही कहते होंगे। मेरी कमजोरियां हैं। मैं न कर पाऊं। शायद न कर पाऊं। लेकिन अर्जुन एक भी बार यह सवाल नहीं उठाता, जो कि बहुत जरूरी है। हमारे मन में उठेगा। और अर्जुन तो उस समय का श्रेष्ठतम व्यक्ति था। आज अगर हम छोटे बच्चे से भी पूछेंगे, तो उसके मन में भी उठेगा कि भरोसा ! | यह तो ब्लाइंड फेथ हो जाएगा, यह तो अंधा विश्वास हो जाएगा ! यह तो कृष्ण अंधेपन की शिक्षा दे रहे हैं। हमारे मन में यह उठता | है | अर्जुन के मन में नहीं उठता। कुछ कारण होंगे। कुछ कारण हैं। सबसे बड़ा कारण यह नहीं है कि आदमी बदल गया। सबसे बड़ा कारण यह है कि आदमी की कंडीशनिंग, संस्कार बदल गए। आदमी तो वही है। जब आपके मन में यह सवाल उठता है कि यह तो अंधेपन की शिक्षा है। हम भरोसा कर लें आंख बंद करके ! शंका भी न करें, संदेह भी न करें ! तब तो हम मिटे । 322 असल में आपको मिटाने के लिए ही सारा आयोजन है। अगर धर्म के जगत में प्रवेश करना है, तो स्वयं को मिटने की, मिटाने की सामर्थ्य चाहिए पड़ेगी। अगर आप अपने को बचाते हैं, तो फिर भीतर प्रवेश न हो सकेगा। इसलिए द्वार पर ही लिखा है कि जो निःसंशय श्रद्धा कर सके, वह भीतर आ जाए। जिसकी अभी शंका मौजूद हो, वह थोड़ा और घूमे; मंदिर के बाहर थोड़े और चक्कर लगाए। वह थोड़ा और दौड़े। वह और अपनी शंकाओं को थोड़ा थका ले। और जब शंका से कुछ न पाए... । और आदमी ने शंका से कुछ पाया नहीं। हां, वस्तुएं मिलेंगी। धन मिलेगा, पद मिलेगा। लेकिन पाने जैसा कुछ भी न मिलेगा। जिस दिन शंका थक जाए और ऐसा लगे कि शंका से कुछ मिला नहीं, उस दिन भीतर प्रवेश कर आना। उस दिन भीतर चले आना उस मंदिर के, जहां शंका को बाहर रख आना पड़ता है। आदमी वही है, संस्कार बदले हैं। आज की पूरी शिक्षा विज्ञान

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