Book Title: Dharm Jain Updesh
Author(s): Dwarkaprasad Jain
Publisher: Mahavir Digambar Jain Mandir Aligarh

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Page 13
________________ पाथना। नमः श्री वर्द्धमानाय निर्द्धस कलिलात्मने । सालोकानां त्रिलोकाना यद्विद्या दर्पणायते ॥१॥ सिद्ध संपूर्णभ्य व्याथ सिद्धः कारण घुत्तमं । ... प्रशस्त दर्शन ज्ञान बारित्र प्रतिपादनं ॥ १ ॥ : सुरेन्द्र मुकुटा श्लेष्ठपाद पद्म सुकेसरः ।..: प्रणमामि महावीर लोक त्रितय मंगलं ॥ २ ॥ त्रैलोक्य सकलं त्रिकाल विपर्य झालोकमालोकित . : : साक्षायेन-यथा स्वयं करतले रेखात्रय सालिः। . . . . रागद्वेश भया मयान्तक ज़रा लोलत्व लोभादयो : ... नालं. यत्पदं लङ्घनाय. स. महादेवो मया बन्यत्तेः ॥ १॥ 'अर्थ-जिस प्रकार अंगुलियों सहित हल्लतलं.की. तीन रेखा स्पष्टं देखी जाती हैं, उसी प्रकार जिसने त्रिकाश गोचर प्रलोक सहित समस्त त्रिलोक को प्रत्यक्षतया इयं देखा और राग, छप, भय, रोग, मत्यु जेरा, लोलुपत्ता लोमादिकम्जोर दोप' है, के जिंग पदको उल्लंघन करने की असमर्थ हैं, उस"महादेव" देवों का देव-अहंत वीतराग सर्वच जिनेदं परमात्मा को मैं पंदना (नमस्कार.):करता .

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