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(प्रथम अध्ययन
दुमपुस्फिया (द्रुमपुष्पिका)
धम्मो मंगलमुक्किटुं, अहिंसा संजमो तवो।
देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ।।1।। हिन्दी पद्यानुवाद
यह धर्म परम मंगल जानो, अहिंसा संयम तप वाला।
सुरवर भी उसको नमन करे,जो सदा धर्म में मनवाला ।। अन्वयार्थ-धम्मो = दुर्गति में गिरते हुए जीव को बचाने वाला श्रुत-चारित्र रूप धर्म । मंगलमुक्किट्ठ = उत्कृष्ट मंगल है। अहिंसा संजमो तवो = वह धर्म अहिंसा, संयम और तप रूप है। देवा वि = देवता भी । तं = उसको । नमसंति = नमस्कार करते हैं । जस्स = जिसका । धम्मे = धर्म में । सया = सदा । मणो = मन लगा रहता है।
भावार्थ-अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म संसार के सब मंगलों में श्रेष्ठ मंगल है। त्रस, स्थावर, सूक्ष्म, बादर आदि जीवों को आत्मवत् समझकर नहीं मारना, नहीं सताना, दया पालना अहिंसा है। संयम के बिना अहिंसा का पूर्ण पालन नहीं हो सकता, अत: धर्म का दूसरा अंग संयम को अर्थात् इन्द्रियों और मन पर नियन्त्रण को बतलाया है । वह तप से पुष्ट होता है । इच्छा-निरोध एवं कष्ट-सहिष्णुता रूप तप से संयम का निराबाध पालन होता है, अत: तप धर्म का तीसरा अंग है। सबको मिलाकर कहा कि-“अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म सर्वश्रेष्ठ मंगल है।" भजन, स्मरण, कीर्तन, दर्शन, सत्संग, शास्त्र-पठन और दान, सेवा आदि धर्म के साधन हैं।
ऐसे धर्म में जिसका मन सदा रमण करता रहता है, उसको चार जाति के भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवता भी नमस्कार करते हैं।
जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो आवियइ रसं । न य पुप्फं किलामेइ, सो य पीणेइ अप्पयं ।।2।।