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(7) धूमिका-कार्तिक से माघ मास तक मेघ का गर्भ जमता है, इस समय जो धूम वर्ण की सूक्ष्म जल रूप धूवर पड़ती है, वह
धूमिका कहलाती है। जब तक धूमिका रहती है, तब तक स्वाध्याय का वर्जन करना चाहिये। महिका-शीतकाल में सफेद वर्ण की सूक्ष्म अप्काय रूप धूवर गिरती है, उसे महिका कहते हैं। जब तक धूवर गिरती रहे, तब तक अस्वाध्याय माना जाता है। यक्षादीप्त-कभी-कभी किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा रह-रह कर प्रकाश होता हो, उसे यक्षादीप्त कहते हैं। जब
तक वह साफ दिखाई पड़े, तब तक अस्वाध्याय मानना चाहिये। (10) रजउद्घात-वायु के कारण आकाश में चारों ओर जो धूल छा जाती है, उसे रजोद्घात कहते हैं। जब तक यह रहे, तब
तक अस्वाध्याय मानना चाहिये। दस औदारिक शरीरसम्बन्धी(11-13) तिर्यञ्च के हाड़, मांस और रक्त, साठ हाथ के अन्दर हों, तथा साठ हाथ के भीतर बिल्ली आदि ने चूहे को मारा हो तो,
अहोरात्रि का अस्वाध्याय कहा गया है। यदि मनुष्य सम्बन्धी हाड़-मांस और रक्त आदि हो, तो सौ हाथ दूर तक अस्वाध्याय माना गया है। तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय का साठ हाथ तक होता है। काल की अपेक्षा टीकाकारों ने एक अहोरात्रि का समय माना है, किन्तु वर्तमान में कलेवर हटाकर स्थान को धोकर साफ कर लेने के बाद अस्वाध्याय नहीं माना जाता है। बहिरंग के
ऋतुधर्म का तीन दिन और बालक-बालिका के जन्म का क्रमश: सात और आठ दिन का अस्वाध्याय माना जाता है। (14) अशुचि-मल, मूत्र और गटर आदि स्वाध्याय-स्थल के पास हो अथवा मलादि दृष्टिगोचर हो, तो वहाँ स्वाध्याय नहीं करना
चाहिये। (15) श्मशान-श्मशान के चारों ओर सौ-सौ हाथ तक अस्वाध्याय माना गया है। (16) चन्द्रग्रहण-चन्द्रग्रहण में कम से कम आठ और अधिक से अधिक बारह प्रकार तक अस्वाध्याय माना गया है। आचार्यों ने
यदि उदित चन्द्र ग्रसित हो, तो चार प्रहर रात के व चार प्रहर दिन के अस्वाध्याय मानने का निर्णय किया है। (17) सूर्यग्रहण-सूर्यग्रहण का कम से कम आठ, बारह और उत्कृष्ट सोलह प्रहर तक अस्वाध्याय माना गया है। यदि पूरा ग्रहण
हो तो सोलह प्रहर का अस्वाध्याय माना जाता है। (18) पतन-राजा के निधन, राजा या उत्तराधिकारी की मृत्यु होने पर जब तक दूसरा राजा सत्तारूढ़ न हो, तब तक अस्वाध्याय
माना जाता है। (19) राजव्युद्ग्रह-राजाओं में परस्पर संग्राम होता रहे, जब तक शान्ति न हो, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिये। (20) औदारिक शरीर-उपाश्रय के निकट तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय का कलेवर पड़ा हो तो साठ हाथ तथा यदि मनुष्य का कलेवर हो तो
सौ हाथ तक अस्वाध्याय माना जाता है। (21-30) पाँच महापूर्णिमा-1. आषाढ़ी पूर्णिमा, 2. भादवा पूर्णिमा, 3. आश्विनी पूर्णिमा, 4. कार्तिक पूर्णिमा, 5. चैत्र की
पूर्णिमा। पाँच प्रतिपदा-1. श्रावण कृष्णा प्रतिपदा, 2. आसोज कृष्णा प्रतिपदा, 3. कार्तिक कृष्णा प्रतिपदा, 4. मगसर
कृष्णा प्रतिपदा, 5. वैशाख कृष्णा प्रतिपदा । इन दिनों में इन्द्र महोत्सव होते थे। अत: इन दस दिनों में अस्वाध्याय माना गया है। (31-34) चार संध्या-दिन एवं रात्रि में संध्याकाल अर्थात् प्रातः, सायं, मध्याह्न तथा मध्य-रात्रि में दो घड़ी अर्थात् एक मुहूर्त का
अस्वाध्याय माना जाता है।
आगम तीन प्रकार के होते हैं-1. मूल पाठ को सुत्तागम, 2. अर्थ के पठन-पाठन को अर्थागम, 3. सूत्र बोलकर अर्थ पढ़ना तदुभयागम कहलाता है। अस्वाध्याय काल में सूत्र पढ़कर, अर्थ वाचना करने, कराने का निषेध समझना चाहिये। इस प्रकार अस्वाध्याय को छोड़कर, शुद्ध उच्चारण से शास्त्र का स्वाध्याय करना महती कर्म-निर्जरा का कारण होता है। अत: सुज्ञ पाठकों को प्रतिदिन स्वाध्याय करना चाहिये।
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