Book Title: Dash Vaikalika Sutra
Author(s): Hastimalji Aacharya
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 10
________________ शास्त्र पढ़ने की विधि ज्ञान-वृद्धि के लिये छद्मस्थ आचार्यों के ग्रन्थ और वीतराग प्रणीत शास्त्रों के पठन-पाठन की विधि में बहुत अन्तर है । ग्रन्थों के पठन-पाठन में काल-अकाल और स्वाध्याय-अस्वाध्याय कृत प्रतिबन्ध खास नहीं होता, जबकि शास्त्रवाणी जिसको आगम भी कहते हैं, के पठन-पाठन में काल-अकाल का ध्यान रखना आवश्यक है। वीतराग प्रणीत शास्त्र में जो कालिक शास्त्र हैं, वे दिन-रात्रि के प्रथम और अन्तिम प्रहर में ही नियमानुसार शरीर और आकाश सम्बन्धी अस्वाध्यायों को छोड़कर पढ़े जाते हैं। इसके अतिरिक्त उपांग, कुछ मूल और कुछ छेद आदि उत्कालिक कहे जाते हैं, वे दिन-रात्रि के चारों प्रहर में पढ़े जा सकते हैं। स्वाध्याय करने वाले धर्म प्रेमी भाई-बहिनों को सर्वप्रथम गुरु महाराज की आज्ञा लेकर अक्षर, पद और मात्रा का ध्यान रखते हुए शुद्ध उच्चारण से स्वाध्याय करना चाहिये । आगम शास्त्र अंग, उपांग, मूल और छेद रूप से अनेक रूपों में विभक्त हैं, उन सबमें मुख्य रूप से कालिक और उत्कालिक के विभाग में सबका समावेश हो जाता है । स्वाध्याय करते समय स्वाध्यायी को ये बातें ध्यान में रखना आवश्यक है कि यह स्थान और समय स्वाध्याय के योग्य है या नहीं ? अत: ज्ञान के निम्न चौदह अतिचारों का ध्यान रखकर स्वाध्याय करने से ज्ञानाचार की आराधना होती है (1) सूत्र के अक्षर उलट-पलट कर पढ़ना। (2) एक शास्त्र के पद को दूसरे शास्त्र के पद से मिलाकर पढ़ना। (3) सूत्रपाठ में अक्षर कम करना । (4) सूत्र पाठ में अधिक अक्षर बोलना । (5) पदहीन करना। (6) बिना विनय के पढ़ना । (7) योगहीन-मन, वचन और काया के योगों की चपलता से पढ़ना। (8) घोषहीन-जिस अक्षर का जिस घोष से उच्चारण करना हो, उसका ध्यान नहीं रखना । (9) पढ़ने वाले पात्र का ध्यान न रखकर अयोग्य को पाठ देना । (10) आगम पाठ को अविधि से ग्रहण करना। (11) अकाल-जिस सूत्र का जो काल हो, उसका ध्यान न रखकर अकाल में स्वाध्याय करना । (12) कालिक-शास्त्र पठन के काल में स्वाध्याय नहीं करना । (13) अस्वाध्याय-अस्वाध्याय की स्थिति में स्वाध्याय करना । (14) स्वाध्याय की स्थिति में स्वाध्याय नहीं करना। अस्वाध्याय के प्रकार अस्वाध्याय का अर्थ यहाँ पर स्वाध्याय का निषेध नहीं, किन्तु जिस क्षेत्र और काल में स्वाध्याय का वर्जन किया जाता है, वह अपेक्षित है, इस दृष्टि से अस्वाध्याय मुख्य रूप से दो प्रकार का होता है। (1) आत्म समुत्थ (2) पर समुत्थ । अपने शरीर में रक्त आदि से अस्वाध्याय का कारण होता है। अत: उसे आत्म समुत्थ कहा है। स्थानांग और आवश्यक नियुक्ति आदि में इसका विस्तार से विवेचन किया गया है। वहाँ पर दस औदारिक शरीर की, दस आकाश सम्बन्धी, पाँच पूर्णिमा तथा पाँच महाप्रतिपदा की और चार सन्ध्याएँ, कुल मिलाकर 34 अस्वाध्याय कही गई हैं, जो इस प्रकार हैंदस आकाश सम्बन्धी(1) उल्कापात-तारे का टूटना, उल्कापात में एक प्रहर का अस्वाध्याय होता है। (2) दिग्दाह-दिशा में जलते हुए बड़े नगर की तरह ऊपर की ओर प्रकाश दिखता है और नीचे अन्धकार प्रतीत हो, उसे दिग्दाह कहते हैं। इसमें भी एक प्रहर का अस्वाध्याय होता है। गर्जित-मेघ का गर्जन होने पर दो प्रहर का अस्वाध्याय । असमय में गर्जन-बिजली चमकना । आर्द्रा नक्षत्र से स्वाति नक्षत्र तक वर्षा-ऋतु में गर्जित और विद्युत की अस्वाध्याय नहीं होती है। निर्घात-मेघ के होने या न होने की स्थिति में कड़कने की आवाज हो तो अहोरात्रि का अस्वाध्याय माना जाता है। यूपक-शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा, द्वितीया और तृतीया को चन्द्र प्रभ से सन्ध्या आवृत्त होने के कारण तीनों दिन प्रथम प्रहर में अस्वाध्याय माना जाता है। (5) (6)

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