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चाणक्यसूत्राणि
( शासन-कुशलता सीखने का साधन )
वृद्धसेवाया विज्ञानम् ॥ ७ ॥ विजिगीषु मनुष्य वृद्धोंको सेवासे व्यवहार कुशलता या कर्तव्याकर्तव्य पहचानना सीखे ।
विवरण- विज्ञान अर्थात् ज्ञानकी परिपक्वावस्था अर्थात् यथार्थ ज्ञानकी प्राप्ति किंवा अपने ज्ञानको व्यवहारभूमिमें ला खडा करनेकी कला अर्थात् कार्यकुशलता या कर्तव्याकर्तव्य का समुचित परिचय तब प्राप्त है, जब मनुष्य माग्रह और श्रद्धासे ज्ञानवोंके पास निरन्तर उठता बैठता रहता, उनके घातावरणका अंग बनकर रहता, उन्हें अपनी भूलें बताने भार उनपर नि:शंक टोकते रहने का अप्रतिद्वत्त सलीम अधिकार देकर रखता है। ज्ञानवृ. दोंकी श्रद्धामग्री सेवासे जहां बिनय प्राप्त होता है वहां विज्ञान अर्थात् कार्यकुशलता भी आ जाता है।
न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा
न ते वद्धा ये न वदन्ति धर्मम् । नासौ धर्मो यत्र न सत्यमस्ति
न तत्सत्यं यच्छलेनाभ्युपेतम् ॥ जिन सभाओं या समाजोंमें अनुभवी वृद्ध न होकर अवृद्ध सेवी तथा अनुभवहीन लोग भर लिये जाते या उन्हींका बोलबाला हो जाता है, वे सभायें सभा, और वे समाज सभ्य समाज नहीं कहे जा सकते । वे वृद्ध वृद्ध नहीं होते, जो ( आत्मविक्रय करके, दलगत राजनीति के भाग [पुरजे ] बनकर अपनी स्वार्थकलुषित महत्वाकांक्षा परितृप्त करनेकी दुरभिसंधिसे, व्यवस्थापरिषदोंमें व्यवस्थानिर्माता और सामाजिक विवाद प्रसंगोंमें निर्णायक बनकर जा तो बैठते हैं परन्तु ) धर्म या न्यायकी बात मुंहपर नहीं ला सकते । ( जो धर्मके निःशंक वक्ता नहीं होते, वे किसी भी प्रकार वृद्ध विद्वान् या विवेकी नहीं कहे जा सकते ) वह धर्म धर्म नहीं है, जिसमें