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मात्म-शोषन
पर नजर पड़ी और मन में अचानक ख्याल आया कि यह सांप है। और तुम भयभीत हो गए और उसे मारने लाठी लेने दौड़े। मतलब यह है, कि असली सांप को देखकर जो विचार और भावनाएँ हुआ करती हैं, भय पैदा होता है और मनुष्य मारने को तैयार होता है, वही सब कुछ आप उस समय करते हैं । किन्तु जब प्रकाश लेकर देखते हैं, तब वह साँप नहीं, रस्सी निकलती है। बस, उसी समय आपको वे सब भावनाएं बदल जाती हैं और आप कहते हैं-अरे यह तो रस्सी थी, यह साँप कहाँ था ?
साँप पहले भी नहीं था और बाद में भी नहीं था। और भला! वह.बीच में भी कहाँ था ? वह तो एक भ्रान्त स्फुरणा थी, मात्र भ्रान्ति थी, जो मन में ही जागृत हुई और मन में ही विलुप्त हो गई।
वेदान्त के विद्वान् यही उदाहरण सारे संसार पर लागू करते हैं । उनका आशय यह है, कि सारे ब्रह्माण्ड में नदी, पर्वत, वृक्ष, और मकान आदि जड़ के रूप में तथा मनुष्य, पशु और पक्षी आदि चेतन के रूप में जो प्रसार है, वह एक पर-ब्रह्म चैतन्य का ही है । चैतन्य से पृथक् न कोई भूमि या पहाड़ है, न महल और मकान है और न कोई देह-धारी जीव है । एक चैतन्य के अतिरिक्त दूसरी कोई सत्ता है ही नहीं। जैसे रस्सी को साँप समझ लिया जाता है, उसी प्रकार ब्रह्म को लोग नाना रूपों में समझ रहे हैं । जिस समय रस्सी को साँप समझा जाता है, उस समय यह नहीं मालूम होता, कि वास्तव में यह सांप नहीं है और हमें भ्रम हो रहा है। उस समय तो वह वास्तविक साँप ही मालूम होता है । भ्रम का पता तो प्रकाश में देखने पर ही चलता है। इसी प्रकार जब दिव्य आत्मिक प्रकाश आत्मा को प्राप्त होता है, उस समय आत्मा समझती है, कि यह सारा विस्तार भ्रम के सिवाय और कुछ भी नहीं है। उस समय आत्मा ज्योति रूप बन जाती है और ब्रह्ममय हो जाती है ।
चार्वाक भी अद्वैतवादी है, किन्तु वह जड़ाद तवादी है। और दूसरी ओर वेदान्त भी अद्वतवादी है, किन्तु वह चैतन्यावतवादी है । जैनधर्म द्वैतवादी है। इसका अर्थ यह हुआ, कि वह सारे संसार को एक इकाई न मानकर दो इकाइयों के रूप में स्वीकार करता है। जैनधर्म के अनुसार जड़ और चेतन स्वभावतः पृथक् दो पदार्थ हैं और दोनों की अपनी-अपनी सत्ता है। यह नहीं कि एक ही तत्त्व दो रूपों में हो गया हो। जैन दर्शन मूल में दो तत्त्व स्वीकार करता है—जीव. और अजीव, चेतन और जड़।
बस, यहीं से साधना का रूप प्रारम्भ होता है। जैन दर्शन की साधना का उद्देश्य है, कि जड़ को अलग और चेतन को अलग कर लिया जाए।
पहले कहा जा चुका है, कि जड़ की भांति ही चेतन भी अनन्त हैं। उन सब का अपना-अपना स्वतन्त्र और मौलिक अस्तित्व है। फिर भी सब चेतन स्वभाव से एक समान हैं।
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