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संकल्प शक्ति : ध्यान-योग
योग - शास्त्र में जिसे ध्यान योग कहा जाता है, वह मनुष्य के मन की एक संकल्प शक्ति है, एक मनोबल है। किसी भी व्रत का परिपालन तब तक नहीं किया जा सकता, जब तक कि मनुष्य की संकल्प शक्ति में सुदृढ़ता न आ जाए। ब्रह्मचर्य के परिपालन के लिए भी संकल्प शक्ति, इच्छा-शक्ति, मनोबल और ध्यान योग की नितान्त आवश्यकता है । क्योंकि वासना का उदय सर्वप्रथम मनुष्य के मन में ही होता है । मन में उत्पन्न होने वाली वासता ही मनुष्य के व्यवहार में और वाणी में अवतरित होती है । इसीलिए एक ऋषि ने कहा है कि - "हे काम ! मैं तुझे जानता हूँ कि तेरा जन्म सर्वप्रथम मनुष्य के संकल्प में होता है । मनुष्य के विचार में और मनुष्य की भावना में जब तेरा प्रवेश हो जाता है, तब वह अपने आपको सँभाल नहीं पाता । अतः तुझे जीतने का एक ही उपाय है, कि तेरा संकल्प ही न किया जाए, विचार ही न किया जाए ।""
साधन खण्ड ३
ध्यान योग :
ध्यान योग क्या वस्तु है, इस सम्बन्ध में योग- शास्त्र में गम्भीरता के साथ विचार किया गया है । मन की एकाग्रता को ही वस्तुतः ध्यान कहा जाता है । इस विषय में जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों परम्परा के विद्वानों का अनुभव प्राप्त व्यक्तियों का एक ही अभिमत है, कि मन को किसी एक ही साध्य-रूप विषय पर स्थिर करना, एकाग्र करना, यही ध्यान योग है । ध्यान-योग की साधना के द्वारा साधक अपने मन की बिखरी हुई वृत्तियों को किसी भी एक विषय में एकाग्र करने के लिए जब तत्पर होता है, तब उसके समक्ष अनेक विकट समस्याएँ उपस्थित हो जाती हैं । परन्तु ध्यान-योग की चिरकालीन साधना के बाद साधक के जीवन में वह योग्यता और क्षमता आ जाती है, जिससे वह सहज ही अपने मन के विकल्प और विकारों
१. काम ! जानामि ते मूलं, संकल्पात् किल जायसे ।
न त्वां संकल्पयिष्यामि ततो मे न भविष्यसि ||
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