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बौद्ध-सूक्त
चन्दनं तगरं वापि उप्पलं अथ वस्सिकी । एतेसं गन्धजातानं सोलगन्धो अनुत्तरो ॥
-धम्मपद ४,१२ चन्दन या तगर, कमल या जूही, इन सभी (की) सुगंधों से सदाचार की पु गंध उत्तम है।
अप्पमत्तो अयं गन्धो यायं तगरचन्दनी । या च सोलवतं गन्धो वाति देवेसु उत्तमो ।
-धम्मपद ४, १३ तगर और चन्दन की जो यह गंध फैलती है, वह अल्प मात्र है, और जो यह सदाचारियों की गंध है, (वह) उत्तम (गंध) देवताओं में भी फैलती है ।
तेसं सम्पन्नसीलानं अप्पमाद-विहारिनं । सम्मदाविमुत्तानं मारो मग्गं न विदति ।।
-धम्मपद ४,१४ (जो) वे सदाचारी निरालस हो विहरने वाले, यथार्थ ज्ञान द्वारा मुक्त (हो गए हैं), (उनके) मार्ग को मार नहीं पकड़ सकता ।। भोग-तण्हाय दुम्मेधो, हन्ति अञो व अत्तनं ।
-धम्मपद २४,२२ भोगों की तृष्णा में पड़कर वह दुर्बुद्धि पराये की भाँति अपने ही को हनन करता है । चित्तं दन्तं सुखावहं,
-धम्मपद ३,३। दमन किया हुआ चित्त सुख-दायक होता है । अत्तानं दमयन्ति पण्डिता।
-धम्मपद ६,५ पंडितजन अपना दमन करते हैं।
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