Book Title: Bramhacharya Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 242
________________ वैदिक-सूक्त तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसोत मत्परः । वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ - गीता २, ६१ ॥ इसलिए मनुष्य को चाहिए कि उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहितचित्त हुआ मेरे में स्थित होवे, क्योंकि जिस पुरुष के इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसकी ही बुद्धि स्थिर होती है । विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते । । ध्यायतो सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥ -गीता २, ६२ ॥ हे अर्जुन ! मनसहित इन्द्रियों को वश में करके मेरे में परायण न होने से मन के द्वारा विषयों का चिन्तन होता है और विषयों को चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है और आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना से क्रोध उत्पन्न होता है । क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृति - विभ्रमः । स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥ रागद्वेषवियुक्तस्तु आत्मवश्यै विधेयात्मा - गीता २, ६३ ॥ क्रोध से अविवेक अर्थात् मूढ़ भाव उत्पन्न होता है और अविवेक से स्मरण शक्ति भ्रमित हो जाती है और स्मृति के भ्रमित हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि के नाश होने से यह पुरुष अपने श्रयसाधन से गिर जाता है । २३३ विषयानिन्द्रियैश्चरन् । प्रसादमधिगच्छति ॥ Jain Education International - गीता २, ६४ ॥ परन्तु स्वाधीन अन्तःकरण वाला पुरुष अपने वश में की हुई राग द्वेष-रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों को भोगता हुआ भी अन्तःकरण की प्रसन्नता अर्थात् स्वच्छता को प्राप्त होता है । इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते । तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ।। - गीता २, ६७ ॥ जल में नाव को वायु जैसे हर लेता है वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों के बीच में जिस इन्द्रिय के साथ मन रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि का हरण कर लेती है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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