Book Title: Bramhacharya Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 240
________________ वैदिक-सूक्त २३१ अन्तःशरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्रो । यं पश्यन्ति यतयः क्षीणदोषाः ।। -मुण्डकोपनिषद् ३।११५ यह आत्मा (अथवा परमात्मा) सत्य, तप, सम्यग्ज्ञान और ब्रह्मचर्य से ही प्राप्त किया जा सकता है । जिसे दोषहीन यति (संयत जीवन व्यतीत करने वाले) देखते हैं, वह ज्योतिर्मय शुभ्र आत्मा इसी शरीर के अन्दर वर्तमान है । अर्थात् मनुष्य अपने अन्दर ही अपने विशुद्ध स्वरूप अथवा परमात्मा के दर्शन कर सकता है । आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः । सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः । स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः ।। -छान्दोग्योपनिषद् ७।२६।२ आहार की (इन्द्रिय द्वारा ग्रहण किए गए विषयों की) शुद्धि होने पर सत्त्व (अंतःकरण) की शुद्धि होती है । सत्त्व की शुद्धि होने पर ध्रुव अर्थात् स्थायी स्मृति का लाभ होता है । उस स्मृति के लाभ से (अर्थात् सर्वदा जागरूक अमूढ़ ज्ञान की प्राप्ति से) मनुष्य की समस्त ग्रन्थियाँ खुल जाती हैं, अर्थात् जीवन की समस्त उलझनों का समाधान हो जाता है। इन्द्रियाणां विचरतां विषयेष्वपहारिषु । संयमे यत्नमातिष्ठेद्विद्वान्यन्तेव वाजिनाम् ॥ -मनुस्मृति २८८ विद्वान को चाहिए, कि वह जैसे सारथि घोड़ों को संयम में रखता है, ऐसे ही, आकर्षण करने वाले विषयों में जाने वाली इन्द्रियों को संयम में रखने का यत्न करे। इन्द्रियाणां प्रसङ्गन दोषमच्छत्यसंशयम् । संनियम्य तु तान्येव ततः सिद्धिं नियच्छति ।। -मनुस्मृति २०६३ इसमें सन्देह नहीं कि विषयों में इन्द्रियों की प्रसक्ति से मनुष्य बुराई की ओर प्रवृत्त होता है और उनके संयम से जीवन के लक्ष्य की सिद्धि को प्राप्त करता है। न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवर्मेव भूय एवाभिवर्धते ।। -मनुस्मृति २०६४ कामनाओं के उपभोग से कामना कभी शान्त नहीं होतो । प्रत्युत घी डालने पर अग्नि की तरह, वह और अधिक बढ़ती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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