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ब्रह्मचर्य-दर्शन इत्थीण चित्तंसि निवेसइत्ता, दटुं ववस्से समणे तवस्सी ।
-उत्त० अ० ३२, गा० १४ तपस्वी श्रमण स्त्रियों के रूप-लावण्य, विलास, हास-परिहास, भाषण-संभाषण, स्नेह, चेष्टा अथवा कटाक्षयुक्त दृष्टि को अपने मन में स्थान न दे और उसे देखने का प्रयास न करे। अदंसणं चेव अपत्थणं च,
अचिंतणं चेव अकित्तणं च । इत्थीजणस्साऽरियज्झाणजुगं, हियं सया बंभवए रयाणं ।।
-उत्त० अ० ३२, मा० १५ ब्रह्मचर्य में लीन और धर्म-ध्यान के योग्य साधु स्त्रियों को रागदृष्टि से न देखे, स्त्रियों की अभिलाषा न करे, मन से उनका चिन्तन न करे और वचन से उनकी प्रशंसा न करे । यह सब सदा के लिए ब्रह्मचारी के ही हित में है। जइ तं काहिसी भावं,
जा जा दिच्छसि नारिओ। वायाविद्धो व्व हडो, अद्विअप्पा भविस्ससि ॥
-उत्त० अ० २२, गा० ४५ हे साधक । जिन-जिन स्त्रियों पर तेरी दृष्टि पड़े, उन सबके प्रति भोग की अभिलाषा करेगा, तो वायु से कम्पायमान हड वृक्ष की तरह तू अस्थिर बन जाएगा और अपने चित्त की समाधि खो बैठेगा ।
हासं किड्ड रयं दप्पं, सहसा वित्तासियाणि य । बंभचेररओ थीण, नाणुचिन्ते कयाइ वि ।।
-उत्त० अ० १६, गा० ६ ब्रह्मचर्य-प्रेमी साधक ने पूर्वावस्था में स्त्रियों के साथ हास्य द्यूतक्रीड़ा, शरीर स्पर्श का आनन्द, स्त्री का मान-मर्दन करने के लिए धारण किए हुए गर्व तथा विनोद के लिए की गई सहज-चेष्टादि क्रियाओं का जो कुछ अनुभव किया हो, उन सबका मन से कदापि विचार न करना चाहिए।
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