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ब्रह्मचर्य - वर्शन
मूलमेयमहम्मस्स,
महादोससमुस्सय
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तम्हा मेहुण संसग्गं, निग्गंथा वज्जयंति णं ॥
- दश० अ० ६, गा० १६
यह ब्रह्मचर्य, अधर्म का मूल और महान् दोषों का स्थान है । अतः निर्ग्रन्थ मुनि मैथुन - संसर्ग का सदा त्याग करते हैं ।
जेहि नारीणं संजोगा, पूयणा पिट्ठओ कया । सव्वमेयं निराकिच्चा, ते ठिया सुसमाहिए ||
--सूत्र ० श्र० १, अ० ३, उ० ४, गा० १७
जिन पुरुषों ने स्त्री संसर्ग और शरीर शोभा को तिलांजलि दे दी है, वे समस्त विघ्नों को जीतकर उत्तम समाधि में निवास करते हैं !
देवदाणवगंधव्वा, जक्ख- रक्खस- किन्नरा । बंभारि नमसंति, दुक्करं जे करेंति तं ॥ - उत्त० अ० १६, गा० १६
अत्यन्त दुष्कर ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले ब्रह्मचारी को गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नरादि सभी देवता नमस्कार करते हैं ।
एस धम्मे धुवे निच्चे, सासए जिणदेसिए । सिद्धा सिज्झन्ति चाणेण, सिज्झिस्सन्ति तहाज्वरे ॥ -उस० अ० १६, गाँ० १७
यह ब्रह्मचर्यं धर्मं ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है और जिनदेशित है, अर्थात् जिनों द्वारा उपदिष्ट है । इसी धर्म के पालन से अनेक जीव सिद्ध बन गए, वर्तमान में बन रहे हैं और भविष्य में भी बनेंगे ।
वाउव्व जालमच्चेइ, पिया लोगंसि इत्थिओ ||
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देव, दानव,
- सूत्र० श्र० १, अ० १५, गा० ८
जैसे वायु अग्नि की ज्वाला को पार कर जाता है, वैसे ही महापराक्रमी पुरुष इस लोक में स्त्री-मोह की सीमा का उल्लंघन कर जाते हैं ।
कामराग-विवडूणी ।
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महायजणणो, बंभर भिक्खू, थी - कहं तु विवज्जए ।
- उत्त० अ० १६, गा० २
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