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बंभचेरं उत्तमतव-नियम- नाण- दंसण चरित्त सम्मत्त-विणयमूलं । - प्रश्न ० संवरद्वार ४, सूत्र १
ब्रह्मचर्य उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्पक्त्व और विनय का मूल है ।
एक्कमि बंभचेरे जंमि य आराहियंमि, आराहियं वयमिगं सव्वं, "तम्हा निउएण बंभचेरं चरियव्वं ।
- प्रश्न० संवरद्वार ४, सूत्र १
जिसने अपने जीवन में एक ब्रह्मचर्य व्रत की ही आराधना की हो, उसने सभी उत्तमोत्तम व्रतों की आराधना की है - ऐसा समझना चाहिए। अतः निपुण साधक को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए ।
तवेसु वा उत्तम बंभचेरं ॥
समग्र तपों में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ है ।
जैन-सूक्त
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विरई प्रबंभचेरस्स, कामभोगरसन्नुणा । उग्गं महव्वयं बंभं धारेयव्वं सुदुक्करं ॥
- सूत्र० श्र० १, अ० ६, गा० २३
अबंभचरियं घोरं नाऽऽयरंति मुणी लोए,
कामभोग का रस जानने वालों के लिए मैथुन- त्याग और उग्रं ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने का कार्य अति कठिन है ।
जन के लिए अत्यन्त दुःसाध्य,
कदापि सेवन नहीं करते ।
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- उत्त० अ० १६, गा० २६
पमायं दुरहिट्ठियं । भेयाययणवज्जिणी ||
संयम भंग करने वाले स्थानों से सर्वथा दूर रहने वाले साधु-पुरुष; साधारण
प्रमाद रूप और महान् भयंकर अब्रह्मचर्य का
- दश० अ० ६, गा० १५
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