________________
जेन-सूक्त
२२३
ब्रह्मचर्य-परायण साधक को चाहिए कि वह मन में अनुराग उत्पन्न करने वाली तथा विषय-वासनादि की वृद्धि करने वाली स्त्री-कथा का निरन्तर त्याग करे ।
समं च संथवं थीहिं, संकहं च अभिक्खणं । बंभचेररओ भिक्खू, निच्चसो परिवज्जए ।।
-उत्त० अ० १६, गा० ३ ब्रह्मचर्य में रस रखने वाला साधक, स्त्रियों के परिचय और उनके साथ बैठ कर बारबार वार्तालाप करने के अवसरों का, सदा के लिए परित्याग कर दे।
जतुकुंभे जहा उवज्जोई, संवासे विदू विसीएज्जा ।
--सूत्र० श्रु० १, अ० ४, उ० १, गा० २६ जैसे अग्नि के पास रहने से लाख का घड़ा पिघल जाता है, वैसे ही विद्वान पुरुष भी स्त्री के सहवास में विषाद को प्राप्त होता है, अर्थात् उसका मन संक्षुब्ध बन जाता है। जहा विरालावसहस्स मूले,
न मूसगाणं वसही पसत्था । एमेव इत्थीनिलयस्स मज्झे, ___ न बंभयारिस्स खमो निवासो।
-उत्त० अ० ३२, गा० १३ जैसे विडालों के वास-स्थान के पास रहना चूहों के लिए योग्य नहीं है, वैसे ह स्त्रियों के निवास स्थान के बीच रहना ब्रह्मचारी के लिए योग्य नहीं है ।
जहा कुक्कुडपोअस्स, निच्चं कुललओ भयं । एवं खु बंभयारिस्स, इत्थी विग्गहओ भयं ।।
-दश० अ० ८, गा० ५४ जिस तरह मुर्गी के बच्चे को बिल्ली से प्राणापहार का भय सदा बना रहता है, ठीक वैसे ही ब्रह्मचारी को भी नित्य स्त्री-सम्पर्क में रहने से अपने ब्रह्मचर्य के भंग होने का भय बना रहता है। न रूवलावण्णविलासहासं
न जंपियं इंगियपेहियं वा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org