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साधन - खण्ड
संक्लेश और विशुद्धि :
बौद्ध साहित्य में शील शब्द यद्यपि व्यापक अर्थ में ग्रहण किया गया है, तथापि उस व्यापक अर्थ में से शील शब्द का मुख्य रूप में ब्रह्मचर्य अर्थ ही लिया जाता है । जैन - शास्त्र में ब्रह्मचर्य के लिए शील शब्द का प्रयोग उपलब्ध होता है । शील शब्द भारतीय संस्कृति में इतना व्यापक एवं विशाल है, कि चारित्र्य एवं आचार के समस्त सद्गुणों का समावेश शील शब्द में हो जाता है । अतः शील शब्द ब्रह्मचर्य के अर्थ में प्रयुक्त होकर भी अध्यात्म के प्रायः समस्त गुणों का स्पर्शन कर लेता है । विशुद्धि-मार्ग :
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बौद्ध साहित्य में विशुद्धि-मार्ग, जिसका पालि रूप 'विसुद्धि मग्गो' होता है, योग का एक विशिष्ट ग्रन्थ है । इसमें चित्त वृत्तियों का बहुत व्यापक एवं विस्तार के साथ विश्लेषण किया गया है । कुछ विद्वानों का अभिमत है कि पतंजलि के 'योग-शास्त्र' से भी अधिक गम्भीर एवं गहन विशुद्धि-मार्ग है । भगवान बुद्ध ने चित्त के सम्बन्ध में तथा मन की वृत्तियों के सम्बन्ध में जो कुछ भी कहा था, उस सबका संकलन आचार्य बुद्धघोष ने इसमें कर दिया है । निस्सन्देह योग-विषयक यह एक महान ग्रन्थ है । इस विशुद्धि-मार्ग के प्रथम परिच्छेद में शील का विस्तार के साथ विवेचन एवं विश्लेषण किया गया है । शील का महात्म्य विस्तार से बताया गया है ।
संक्लेश और विशुद्धि :
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भगवान बुद्ध से पूछा गया था कि चित्त में तरंगित होने वाले संक्लेशों की विशुद्धि कैसे की जाए ? इस प्रश्न के समाधान में संक्लेशों की विशुद्धि का जो मार्ग बतलाया उसे विशुद्धि मार्ग में शील-निर्देश कहा गया है । बुद्ध ने कहा था- जब तक चित्त का मैथुन के साथ संयोग है, तब तक संक्लेश दूर नहीं हो सकते । मैथुन से विरत होना ही संक्लेशों को दूर करने का एक मात्र वासना, कामना एवं संक्लेश उत्पन्न होते अपने चित्त को विशुद्ध नहीं बना सकता ।
उपाय है। जब तक चित्त में रहते हैं, तंत्र तक मनुष्य किसी भी प्रकार मैथुन सेवन से राग कम नहीं होता, बल्कि
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